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सूत्रकृतांग - प्रथम अध्ययन - समय
बन्धन तोड़ने का उपाय — इस अध्ययन के प्रथम उद्देशक की प्रथम गाथा में यह प्रश्न उपस्थित किया गया था कि किसे जान कर व्यक्ति बन्धन तोड़ पाता है ? इस प्रश्न के उत्तर में पाँचवीं गाथा में उसका उपाय दो प्रकार से बताया गया है ( १ ) समस्त सजीव-निर्जीव पदार्थ प्राणी की रक्षा करने में असमर्थ, (२) तथा जीवन को स्वल्प व क्षणभंगुर मान कर कर्मों के बन्धन को तोड़ सकता है अथवा कर्मों से छूट सकता है । इसी बात को शास्त्रकार कहते हैं- " सव्वमेयं न ताणइ जोविय चेव संखाए, कम्मुणा उतिउट्टइ।" इसका आशय यह है कि बन्धन यहाँ कोई जंजीर या रस्से का नहीं है, जिसे तोड़ने के लिए शारीरिक बल लगाना पड़े । यहाँ 'परिणामे बन्ध:' इस सिद्धान्तसूत्र के अनुसार मनुष्य के शुभाशुभ परिणामों - पूर्वोक्त गाथाओं में वर्णित परिग्रह, हिंसा एवं मोह-ममता मूर्च्छा के भावों से जो कठोर अशुभ कर्मबन्धन होते हैं, वे मन से होते हैं. और उन बन्धनों को मन से तोड़ा भी जाता है । कहा भी है- 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः मनुष्यों के बन्ध और मोक्ष का कारण उनका मन ही है ।'
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मन से ममता मूर्च्छा आदि बन्धन से छूट जायेगा । मन ने सकेगा।
के निकलते ही कर्मबन्धन स्वतः कर्मबन्धन किये हैं, मन ही प्रशस्त
वित्त और सहोदर : समस्त ममत्व स्थानों के प्रतीक - 'वित्तं' शब्द से यहाँ केवल सोना चाँदी सिक्के आदि धन ही नहीं, अपितु समस्त अचित्त पदार्थों को ग्रहण कर लेना चाहिए तथा 'सोयरिया' शब्द से सहोदर भाई-बहन से नहीं, जितने भी सजीव माता-पिता सगे सम्बन्धी जन हैं उन सबको ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि ये ही अचित्त और सचित्त पदार्थ ही ममत्वस्थान हैं । २५
हट जायेंगे, आत्मा कर्मचिन्तनबल से इन्हें तोड़
जीवन स्वल्प और नाशवान - जिस शरीर पर मनुष्य की इतनी आसक्ति है, जिसे भोजनादि के द्वारा पुष्ट करता है, वस्त्र, मकान, आदि भोज्य साधन जिसकी रक्षा के लिए जुटाता है, जिस जीवन के लिए हिंसा, असत्य, परिग्रह आदि अनेक पाप करता है क्या वह आयुष्य के टूटने पर उस शरीर या जीवन को बचा सकता है ? और इस नाशवान जीवन का कोई भरोसा भी तो नहीं है कि कब नष्ट हो जाए । इस तथ्य को हृदयंगम करके इस जीवन के प्रति ममता को मन से निकाल फेंके । जीवन के लिए अशुभ कर्मबन्ध करने वाले तत्त्वों को हृदय से निकाल दे।
ये सब भी त्राण रूप नहीं – धन, परिजन आदि सब पूर्वोक्त सचित्त-अचित्त द्रव्य प्राणान्तक शारीरिक मानसिक पीड़ा भोगते हुए परिग्रही, हिंसक या ममत्वी जीव की रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं । मनुष्य इसलिए इन पर ममत्व करता है कि समय आने पर जन्म, जरा, व्याधि, मृत्यु इष्ट-वियोग आदि के भयंकर दुःखों या जन्म-मरण परम्परा के घोरतम कष्टों से मेरी रक्षा करेंगे और मुझे शरण देंगे, परन्तु
२४ (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक- १४ २५ सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक- १४
२६ सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृ० ४६ उत्तराध्ययन सूत्र ८ / १ में देखिये -
अधुवे असासयंमि संसारंमि दुक्खपउराए । कि नाम होज्ज तं कम्मयं जेणाहं दुग्गइं न गच्छेज्जा ।