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सूत्रकृतांग - प्रथम अध्ययन - समय
संसार में जो कुछ दिखाई देता है, वह या तो जड़ होता है अथवा चेतन, इन दोनों में विश्व के . समस्त पदार्थ आ जाते । इन्हीं दोनों को लेकर बाह्य या आभ्यन्तर परिग्रह होता है । इसीलिए शास्त्रकार ने 'चित्तमंतमचित्तं' ये दो पद सूत्ररूप में यहाँ दिये हैं । १२
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'किसामवि' का तात्पर्य - वृत्तिकार ने इस पद के दो रूप देकर तीन अर्थ सूचित किये हैं- 'किसामवि' ( कृशमपि ) थोड़ा-सा भी या तुच्छ तृण, तुष आदि तुच्छ पदार्थ भी तथा 'कसमवि' (कसमपि) जीव का उस वस्तु को ममत्वबुद्धि से या परिग्रहबुद्धि से प्राप्त करने का परिणाम | 23
परिग्रह रखना जैसे कर्मबन्ध का कारण है, वैसे बन्धन के भय से अपने पास न रखकर दूसरे के पास रखाना भी कर्मबन्ध का कारण है । इसी प्रकार, जो दूसरों को परिग्रह ग्रहण, रक्षण एवं संचित करने की प्रेरणा अनुमोदन या प्रोत्साहन देता है, इन्हें भी शास्त्रकार ने परिग्रह और कर्मबन्ध का कारण मानते हुए कहा है- 'परिगिज्झ अन्नं वा अणुजाणा । १४
परिग्रह कर्मबन्ध का मूल होने से दुःखरूप - परिग्रह दुःखरूप इसलिए है कि अप्राप्त परिग्रह को प्राप्त करने की इच्छा होती है, नष्ट होने पर शोक होता है, प्राप्त परिग्रह की रक्षा में कष्ट होता है और परिग्रह के उपभोग से अतृप्ति रहती है । परिग्रह से वैर, द्वेष, ईर्ष्या, छल-कपट, चित्तविक्षेप, मद, अहंकार अधीरता, आर्त- रौद्रध्यान, विविध पापकर्म बढ़ जाते हैं, इसलिए परिग्रह अपने आप में भी दुःख-कारक है । फिर परिग्रह कर्मबन्ध का कारण होने से उसके फलस्वरूप असातावेदनीयकर्म के उदय से नाना दुःखरूप कटुफल प्राप्त होते हैं इसीलिए यहाँ कहा गया है – ' एवं दुक्खा ण मुच्चई' - वृत्तिकार ने इसका तात्पर्यार्थ बताया है - " परिग्रह अष्ट प्रकार के कर्मबन्ध तथा तत्फलस्वरूप असातोदयरूप दुःख प्राप्त कराता है, इसलिए दुःखरूप है, अतः परिग्रही इस दुःख से मुक्त नहीं होता ।"
हिंसा : कर्मबन्धन का प्रबल कारण - तीसरी गाथा में भी दूसरी गाथा की तरह कर्मबन्ध के मिथ्यात्व, अविरति आदि ५ मुख्य कारणों में से अविरतिरूप कारण के अन्तर्गत हिंसा ( प्राणातिपात) को भी कर्म बन्धन का प्रबल कारण बताया गया है ।
वृत्तिकार प्रकारान्तर से प्राणातिपात ( हिंसा) को बन्धनरूप बताते हैं । उनका आशय यह है कि परिग्रही व्यक्ति गृहीत परिग्रह से असन्तुष्ट होकर फिर परिग्रह के उपार्जन में तत्पर होता है, उस समय उपार्जित परिग्रह में विरोध करने, अधिकार जमाने या उसे ग्रहण करने वाले के प्रति हिंसक प्रतीकार वैर- विरोध, निन्दा, द्वेष, मारपीट, उपद्रव या वध करता है, इस प्रकार अपने धन-सम्पत्ति, जमीन-जायदाद मकान, दुकान, परिवार, जाति, सम्प्रदाय, मत, पंथ, राष्ट्र, प्रान्त, नगर-ग्राम आदि पर ममतावश इनपरिग्रहों की रक्षा के लिए मन, वचन, काया से दूसरे के प्राणों का अतिपात ( घात) करता है, इसलिए परिग्रहरक्षार्थं प्राणातिपात (हिंसा) भी कर्मबन्ध का कारण बताने के लिए शास्त्रकार ने यह तीसरी गाथा दी है। १५
१२ सूत्रकृतांग शीलांक टीका पत्रांक १२
१३ वही, पत्रांक १३, "कसनं कसः, परिग्रहबुद्धया जीवस्य गमनपरिणामः ।"
१४ सूत्रकृतांग वृत्ति पत्रांक १३
१५ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक- १३