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प्रथम उद्देशक : गाथा १ से ६
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किसी वस्तु को केवल ग्रहण करने मात्र से वह परिग्रह नहीं हो जाती अन्यथा पंचमहाव्रती अपरिग्रही साधु के लिए वस्त्र पात्र अन्य धर्मोपकरण उपाश्रय, शास्त्र, पुस्तक, शरीर, शिष्य, भक्त आदि सब परिग्रह हो जाते । वस्तुत: जहाँ मूर्च्छा (आसक्ति) हो, वहीं परिग्रह है ।
दशवेकालिकसूत्र में यही कहा है- साधु साध्वी जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल या पादप्रोंछन आदि धर्मोपकरण रखते हैं या धारण करते हैं, वह संयम पालन और लज्जा निवारण के लिए है । इसलिए प्राणिमात्र के त्राता ज्ञातपुत्र महावीर ने उक्त धर्मोपकरणसमूह को परिग्रह नहीं कहा है, सभी तीर्थंकरों ने मूर्च्छा को ही परिग्रह कहा है, यही बात महावीर ने कही है । "
इसीलिए एक आचार्य ने कहा है - मूर्च्छा से जिनकी बुद्धि आच्छादित हो गई है उनके लिए सारा जगत् ही परिग्रह रूप है और जिनके मन-मस्तिष्क मूर्च्छा से रहित हैं, उनके लिए सारा जगत् ही अपरिग्रहरूप है । १°
महाभारत (४।७२ ) में भी स्पष्ट कहा है- 'बन्ध और मोक्ष के लिए दो ही पद अधिकतर प्रयुक्त होते हैं- "मम' और 'निर्मम' । जब किसी पदार्थ के प्रति मम (ममत्त्व मेरापन ) मेरा है यही भाव आ जाता हैं तब प्राणी कर्म - बन्धन से बंध जाता है और जब किसी पदार्थ के प्रति निर्मम ( मेरा नहीं हैं ) भाव आता है तब बन्धन से मुक्त हो जाता है । "
परिग्रह के दो रूप - परिग्रह के शास्त्रकारों ने मुख्यतः दो रूप बताए हैं - बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य परिग्रह के मुख्यतया दो भेद यहाँ मूल पाठ में बताए हैं- 'चित्तमंतमचित्तं वा परिगिज्झ - सचेतन परिग्रह और अचेतन (जड़) परिग्रह । सचित्त परिग्रह में मनुष्य, पशु, पक्षी, (द्विपद, चतुष्पद) तथा वृक्ष, पृथ्वी, वनस्पति फल, धान्य आदि समस्त सजीव वस्तुओं का समावेश हो जाता है और अचित्त परिग्रह में क्षेत्र, वास्तु (मकान) सोना, चाँदी, मणि, वस्त्र, वर्तन, सिक्के, नोट आदि सभी निर्जीव वस्तुओं का समावेश होता है ।
भगवती सूत्र में कर्म, शरीर और भण्डोपकरण- इन तीनों को ममत्त्वयुक्त होने पर परिग्रह बताया है आभ्यन्तर परिग्रह के क्रोध आदि ४ कषाय, हास्य आदि नो कषाय और मिथ्यात्त्व (विपरीत श्रद्धा मान्यता आदि की पकड़), यश, प्रतिष्ठा, लिप्सा, वस्तु न होते हुए भी उसके प्रति लालसा, आसक्ति आदि १४ प्रकार परिग्रह के बताए हैं ।
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जं पिवत्थं व पायं व कंबलं पायपुं छणं । तं पि संजमलज्जठा धारंति परिहरति य ॥ न सो परिग्गहो वृत्तो नायपुत्तेण ताइणा । मुच्छा परिग्गहो वृत्तो, इइ वृत्तं महेसिणा ॥ मूर्च्छयाच्छन्नधियां सर्व परिग्रहः । मूर्च्छया रहितानां तु जगदेवापरिग्रहः ।।
जगदेव
द्व े पदे बन्ध-मोक्षाय निर्ममेति ममेति च । निर्ममेति विमुच्यते ॥
ममेति बध्यते जन्तुः
- दशवं ० ६।१६-२०
- महाभारत ४/७२