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गाथा ६३७ निम्रन्थ-स्वरूप६३७. एत्थ वि णिग्गंथे एगे एगविऊ बुद्ध संछिण्णसोते सुसंजते सुसमिते सुसामाइए
आयवायपत्ते य विदू दुहतो वि सोयपलिच्छिण्णे णो पूया-सक्कार-लाभट्ठी धम्मट्ठी धम्मविद् णियागपडिवण्णे समियं चरे दंते दविए वोसट्ठकाए निग्गंथे ति वच्चे। से एवमेव जाणह जमहं भयंतारो त्ति बेमि ।
॥ गाहा : सोलसमं अज्झयणं सम्मत्तं ॥
॥ पढमो सुयक्खंघो सम्मत्तो॥ ६३७. पूर्वसूत्र में बताये गये भिक्ष गुणों के अतिरिक्त निर्ग्रन्थ में यहां वर्णित कुछ विशिष्ट गुण होने आवश्यक हैं-जो साधक एक (द्रव्य से सहायकरहित अकेला और भाव से रागद्वेषरहित एकाकी आत्मा) हो, जो एकवेत्ता (यह आत्मा परलोक में एकाकी जाता है, इसे भली-भांति जानता हो या एकमात्र मोक्ष या संयम को ही जानता) हो, जो बुद्ध (वस्तुतत्त्वज्ञ) हो, जो संच्छिन्न स्रोत (जिसने आस्रवों के स्रोत-द्वार बन्द कर दिये) हो, जो सुसंयत (निष्प्रयोजन शरीर क्रिया पर नियन्त्रण रखता हो, अथवा इन्द्रिय और मन पर संयम रखता) हो, जो सुसमित (पांच समितियों से युक्त) हो, जो सुसामायिक युक्त (शत्र-मित्र आदि पर समभाव रखता) हो, जो आत्मवाद-प्राप्त (आत्मा के नित्यानित्य आदि समग्र स्वरूप का यथार्थ रूप से ज्ञाता) हो, जो समस्त पदार्थों के स्वभाव को जानता हो, जिसने द्रव्य और भाव दोनों तरह से संसारागमन स्रोत (मार्ग) को बन्द कर दिया हो, जो पूजा, सत्कार एवं द्रव्यादि के लाभ का अभिलाषी नहीं हो, जो एकमात्र धर्मार्थी और धर्मवेत्ता हो, जिसने नियाग (मोक्षमार्ग या सत्संयम) को सब प्रकार से स्वीकार (प्राप्त) कर लिया हो, जो समत्व में विचरण करता हो। इस प्रकार का जो साधु दान्त, भव्य हो और काया से आसक्ति हटा चुका हो, उसे निर्ग्रन्थ कहना चाहिए ।
. अतः आप लोग इसी तरह समझें, जैसा मैंने कहा है, क्योंकि भय से जीवों के त्राता सर्वज्ञ तीर्थकर आप्त पुरुष अन्यथा नहीं कहते ।
-ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-निग्रन्थ का स्वरूप-प्रस्तुत सूत्र में विभिन्न पहलुओं से निर्ग्रन्थ का स्वरूप बताया गया है।
निर्ग्रन्थ का अर्थ और विशिष्ट गुणों को संगति-निग्रन्थ वह कहलाता है, जो बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थों से रहित हो । सहायकता या रागद्वषयुक्तता, सांसारिक सजीव-निर्जीव पर-पदार्थों को अपने मान कर उनसे सुख-प्राप्ति या स्वार्थ पूर्ति की आशा रखना, वस्तुतत्त्व की अनभिज्ञता, आस्रव द्वा रोकना, मन और इन्द्रियों पर असंयम-परवशता, शत्रु-मित्र आदि पर राग-द्वषादि विषम-भाव, आत्मा के सच्चे स्वरूप को न जानकर शरीरादि को ही आत्मा समझना, द्रव्य-भाव से संसार-स्रोत को खुला रखना, पूजा, सत्कार, या द्रव्य आदि के लाभ की आकांक्षा करना आदि वे ग्रन्थियां हैं, जिनसे निर्गन्थता समाप्त हो जाती है । बाह्य-आभ्यन्तर गाँठे निर्ग्रन्थ जीवन को खोखला बना देती हैं। इसीलिए