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सूत्रकृतांग-पन्द्रहवां अध्ययन-जमतीत ६२६. दूसरे प्राणी जैसे मिश्यात्वादि क्रम से पाप करते हैं, वैसे कर्मविदारण करने में महावीर साधक नहीं करता; क्योंकि पाप कर्म पूर्वकृत पाप के प्रभाव से ही किये जाते हैं परन्तु उक्त महावीर पुरुष सुसंयम के आश्रय से पूर्वकृत कर्मों को रोकता है, और अष्टविधकर्मों का त्याग करके मोक्ष के सम्मुख होता है।
६३०. जो समस्त साधुओं को मान्य है, उस पापरूप शल्य या पापरूप शल्य से उत्पन्न कर्म को काटने वाले संयम की साधना करके अनेक जीव (संसार सागर से) तिरे हैं, अथवा जिनके समस्त कर्म क्षय नहीं हुए हैं, वे वैमानिक देव हुए हैं।
६३१ पूर्वकाल में अनेक वीर (कर्मविदारण-समर्थ) हुए हैं, भविष्य में भी अनेक सुव्रती पुरुष होंगेवे दुनिबोध-दुःख से प्राप्त होने वाले (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप) मार्ग के अन्त (चरमसीमा) तक पहुँच कर, दूसरों के समक्ष भी उसी मार्ग को प्रकाशित (प्रदर्शित) करके तथा स्वयं उससन्मार्ग पर चलते हुए संसार सागर को पार हुए हैं, होंगे और हो रहे हैं।
-ऐसा मैं कहता हूँ। विधेचन-संसारपारंगत साधक की साधना के विविध पहलू-प्रस्तुत पांच सूत्रगाथाओं से संसारसागर पारंगत साधक की साधना के विविध पहलू फलित होते हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) जिनोपदिष्ट अनुत्तर संयम का पालन करके कई निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं। संसार चक्र का अन्त कर देते हैं, (२) समस्त कर्मक्षय के लिए पण्डित वीर्य को प्राप्त करके अनेक नव संचित कर्मों को नष्ट कर दे और नवीन कर्मों को उपार्जित न करे, (३) कर्मविदारण-समर्थ साधक नवीन पापकर्म नहीं करता, बल्कि पूर्वकृत कर्मों को तप, संयम के बल से काट देता है, (४) पाप-कर्म को काटने के लिए साधक संयम की साधना करके संसार-सागर से पार हो जाता है, या वैमानिक देव बन जाता है, (५) तीनों काल में ऐसे महापुरुष होते हैं, जो रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग की साधना करके उसकी पराकाष्ठा पर पहुंच कर दूसरों के समक्ष भी वही मार्ग प्रदर्शित करके संसार सागर को पार कर लेते हैं।'
पाठान्तर और व्याख्या-णिव्वुडा' के बदले चूर्णिसम्मत पाठान्तर है-'णिव्वुता'; अर्थ होता हैपापकर्मों से निवृत्त । 'संमुहीभूता' =चूणिकार के अनुसार अर्थ है-सम्मुख हुए । 'वीरा' के बदले कहींकहीं 'धीर।' पाठ है, जिसका अर्थ होता है-परीषहोपसर्ग सहकर कर्म काटने में सहिष्णु धृतिमान ।१०
॥ जमतीत (यमकीय) : पनहवां अध्ययन समाप्त ॥
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६ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक २६० का सारांश १० (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक २३०
(ख) सूयगडंग चूर्णि (मू० पा० टि०) पृ० ११४ से ११५