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सुत्रकृतांग-बारहवाँ अध्ययन-समवसरण
समस्त छोटे-बड़े प्राणियों को आत्मवत् जानता-देखता है, (२) जो आत्म जागरण के समय विशाल लोक की अनुप्रेक्षा करता है कि 'यह द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से विशाल अन्तरहित लोक कर्मवश जन्म-मरण-जरारोग-शोक आदि नाना दुःख रूप है।' (३) जो तत्त्वदर्शी पुरुष अप्रमत्तं साधुओं से दीक्षा ग्रहण करता है, (४) जीवादि नौ पदार्थों को प्रत्यक्षदर्शी या परोक्षदर्शी से जानकर दूसरों को उपदेश देता है, (५) जो स्व-पर-उद्धार या रक्षण करने में समर्थ हैं, (६) जो जिज्ञासू के समक्ष अनुरूप सद्धर्म का विचार करके प्रकट करता है, (७) सम्यक् क्रियावाद के अनुगामी को उसी तेजस्वी मुनि के सानिध्य में रहना चाहिए, (८) जो आत्मा जीवों की गति-आगति, मुक्ति तथा मोक्ष का (शाश्वतता) और संसार (अशाश्वतता) का रहस्य जानता है. जो अधोलोक के जीवों के दुःखों को जानता है, आश्रव, संवर, पुण्य-पाप बन्ध एवं निर्जरा को जानता है, वही क्रियावाद का सम्यक निरूपण कर सकता है। (8) ऐसे सम्यक क्रियावादी साधू को पंचेन्द्रिय विषयों में आसक्ति एवं द्वेष नहीं रखना चाहिए, उसे जीवन-मरण की भी आकांक्षा नहीं रखनी चाहिए, उसे आदान (मिथ्यात्वादि द्वारा गृहीत कम या विषय कषायों के ग्रहण) से आत्मा को बचाना और माया से मुक्त रहना चाहिए।
. संक्षेप में, जो साधक आत्मवाद, लोकवाद एवं कर्मवाद को जानता है या नौ तत्वों का सर्वकर्मविमुक्ति रूप मोक्ष के सन्दर्भ में स्वीकार करता है, वही वस्तुतः क्रियावाद का ज्ञाता एवं उपदेष्टा है ।२
॥ समवसरण : बारहवां अध्ययन सम्पूर्ण ।।
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१२ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक २२२-२२३ का सारांश