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५२ से १५६
५५४. अत्ताण जो जाणति जो य लोग, आगइं च ओ जाणइष्णागई च।
जो सासयं जाणइ असासयं च, जाती मरणं च जणोषवातं ॥२०॥
५५५. अहो वि सत्ताण विउट्टणं च, जो आसवं जाति संवरं च ।
दुक्खं च जो जाणति निज्जरं च, सो भासितुमरिहति किरियवादं ॥२१॥ ५५६. सद्देसु रुवेसु असन्जमाणे, गंधेसु रसेसु अदुस्समाणे । णो जीवियं णो मरणाभिकखी, आदाणगुत्ते वलयाविमुक्के ॥२२।।
ति बेमि।
॥ समोसरणं : बारसमं अज्झयणं सम्मत्तं ।।
५५२. इस समस्त लोक में छोटे-छोटे (कुन्थु आदि) प्राणी भी हैं और बड़े-बड़े (स्थूल शरीर वाले हाथी आदिः) प्राणी भी हैं । सम्यवादी सुसाधु उन्हें अपनी आत्मा के समाम देखता-जानता है। यह प्रत्यक्ष दृश्यमान विशाल (महान) प्राणिलोक कर्मवश दुःख रूप है'; इस प्रकार की उत्प्रेक्षा (अनुप्रेक्षाविचारणा) करता हुआ वह तत्त्वदर्शी पुरुष अप्रमत्त साधुओं से दीक्षा ग्रहण करे-प्रवृजित हो।
५५३. जो सम्यक् क्रियावादी साधक स्वयं अथवा दूसरे (तीर्थकर, गणधर आदि) से जीवादि पदार्थों को जानकर अन्य जिज्ञासुओं या मुमुक्षुओं को उपदेश देता है, जो अपना या दूसरों का उद्धार या रक्षण करने में समर्थ है, जो जीवों की कर्म परिणति का अथवा सद्धर्म (श्रुत चारित्र रूप धर्म या क्षमादिदशविध श्रमण धर्म एवं श्रावक धर्म) का विचार करके (तदनुरूप) धर्म को प्रकट करता है, उस ज्योतिः स्वरूप (तेजस्वी) मुनि के सानिध्य में सदा निवास करना चाहिए। . ५५४-५५५. जो आत्मा को जानता है, जो लोक को तथा जीवों की गति और अनागति (सिद्धि) को जानता है, इसी तरह शाश्वत (मोक्ष) और अशाश्वत (संसार) को तथा जन्म-मरण एवं प्राणियों के नाना गतियों में गमन को जानता है तथा अधोलोक (नरक आदि) में भी जीवों को नाना प्रकार की पीड़ा होती है, यह जो जानता है, एवं जो आश्रव (कर्मों के आगमन) और संवर (कर्मों के निरोध) को जानता है तथा जो दुःख (बन्ध) और निर्जरा को जानता है, वही सम्यक् क्रियावादी साधक क्रियावाद को सम्यक् प्रकार से बता सकता है ।।
५५६. सम्यग्वादी साधु मनोज्ञ शब्दों और रूपों में आसक्त न हो, न ही अमनोज्ञ गन्ध और रस के प्रति द्वेष करे । तथा वह (असंयमी जीवन) जीवन जीने की आकांक्षा न करे, और न ही (परीषहों और उपसर्गों से पीड़ित होने पर) मृत्यु की इच्छा करे। किन्तु संयम (आदान) से सुरक्षित (गुप्त) और माया से विमुक्त होकर रहे ।
-ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन–सम्यक् क्रियावाद का प्रतिपादक और अनुगामी-प्रस्तुत पांच सूत्र गाथाओं में सम्यक् क्रियावाद के प्ररूपक एवं अनुगामी की अर्हताएं बताई गई हैं । मुख्य अर्हताएँ ये हैं-(१) जो लोक में स्थित