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गाथा ५२१ से ५२७
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स्थानों या पदों में निर्वाणपथ को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं, (२) मुनि को सदैव दान्त एवं यत्नशील रहकर निर्वाण को केन्द्र में रखकर सभी प्रवृत्तियाँ करनी चाहिए, (३) निर्वाण-मार्ग ही मिथ्यात्व कषायादि संसारस्रोतों के तीव्र प्रवाह में बहते एवं स्वकृतकर्म से कष्ट पाते हुए प्राणियों के लिए आश्वासनआश्रयदायक श्रेष्ठ द्वीप है; यही मोक्षप्राप्ति का आधार है । (४) आत्मगुप्त, दान्त, छिन्नस्रोत और आस्रवनिरोधक साधक ही इस परिपूर्ण अद्वितीय निर्वाणमार्गरूप शुद्ध धर्म का व्याख्यान करता है।
___पाठान्तर-- 'व्याणपरमा' के बदले वृत्तिकार सम्मत पाठान्तर है-'निव्वाणं परमं'-व्याख्या समान है। अन्यतीर्थिक समाधि रूप शुद्ध भावमार्ग से दूर
५२१. तमेव अविजाणंता, अबुद्धा बुद्धमाणिणो।
बुद्धा मो त्ति य मण्णंता, अंतए ते समाहिए ॥ २५॥ ५२२. ते य बीओदगं चेव, तमुद्दिस्सा य जं कडं ।
भोच्चा झाणं झियायंति, अखेतण्णा असमाहिता ॥ २६ ॥ ५२३. जहा ढंका य कंका य, कुलला मग्गुका सिही। - मच्छेसणं झियायंति, झाणं ते कलुसाधर्म ॥ २७ ॥ ५२४. एवं तु समणा एगे, मिच्छद्दिट्ठी अणारिया ।
विसएसणं झियायंति, कंका वा कलुसाहमा ।। २८ ।। ५२५. सुद्ध मग्गं विराहिता, इहमेगे उ दुम्मती।
__उम्मग्गगता दुक्खं, घंतमेसंति ते तधा ।। २६ ॥ ५२६. जहा आसाविणि नावं, जातिअंधे दुरूहिया।
इच्छती पारमागंतु, अंतरा य विसीयती ॥ ३०॥ ५२७. एवं तु समणा एगे, मिच्छद्दिट्ठी अणारिया।
सोयं कसिणमावण्णा, आगंतारो महब्भयं ॥ ३१ ॥
६ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक २०१ (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टि०) पृ० ६१