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________________ गाथा ५२१ से ५२७ ३९५ स्थानों या पदों में निर्वाणपथ को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं, (२) मुनि को सदैव दान्त एवं यत्नशील रहकर निर्वाण को केन्द्र में रखकर सभी प्रवृत्तियाँ करनी चाहिए, (३) निर्वाण-मार्ग ही मिथ्यात्व कषायादि संसारस्रोतों के तीव्र प्रवाह में बहते एवं स्वकृतकर्म से कष्ट पाते हुए प्राणियों के लिए आश्वासनआश्रयदायक श्रेष्ठ द्वीप है; यही मोक्षप्राप्ति का आधार है । (४) आत्मगुप्त, दान्त, छिन्नस्रोत और आस्रवनिरोधक साधक ही इस परिपूर्ण अद्वितीय निर्वाणमार्गरूप शुद्ध धर्म का व्याख्यान करता है। ___पाठान्तर-- 'व्याणपरमा' के बदले वृत्तिकार सम्मत पाठान्तर है-'निव्वाणं परमं'-व्याख्या समान है। अन्यतीर्थिक समाधि रूप शुद्ध भावमार्ग से दूर ५२१. तमेव अविजाणंता, अबुद्धा बुद्धमाणिणो। बुद्धा मो त्ति य मण्णंता, अंतए ते समाहिए ॥ २५॥ ५२२. ते य बीओदगं चेव, तमुद्दिस्सा य जं कडं । भोच्चा झाणं झियायंति, अखेतण्णा असमाहिता ॥ २६ ॥ ५२३. जहा ढंका य कंका य, कुलला मग्गुका सिही। - मच्छेसणं झियायंति, झाणं ते कलुसाधर्म ॥ २७ ॥ ५२४. एवं तु समणा एगे, मिच्छद्दिट्ठी अणारिया । विसएसणं झियायंति, कंका वा कलुसाहमा ।। २८ ।। ५२५. सुद्ध मग्गं विराहिता, इहमेगे उ दुम्मती। __उम्मग्गगता दुक्खं, घंतमेसंति ते तधा ।। २६ ॥ ५२६. जहा आसाविणि नावं, जातिअंधे दुरूहिया। इच्छती पारमागंतु, अंतरा य विसीयती ॥ ३०॥ ५२७. एवं तु समणा एगे, मिच्छद्दिट्ठी अणारिया। सोयं कसिणमावण्णा, आगंतारो महब्भयं ॥ ३१ ॥ ६ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक २०१ (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टि०) पृ० ६१
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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