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________________ ३६४ सूत्रकृतांग-एकादश अध्ययन-मार्ग कारिणी क्रियाएं करने के सम्बन्ध में साधु से पूछे कि इस कार्य में धर्म है या नहीं ? अथवा न पूछे तो भी उसके लिहाज या भय से आत्म-गुप्त (आत्मा की पाप से रक्षा करने वाला) जितेन्द्रिय साधु उस व्यक्ति के प्राणिहिंसा युक्त (सावद्य) कार्य का अनुमोदन न करे, न ही उस कार्य में अनुमति दे। 'अस्थि वा भत्वि वा पुण्ण ?' के बदले पाठान्तर है- तहा गिरं समारन्म । इन दोनों का भावार्थ समान है। निर्वाणमार्ग : माहात्म्य एवं उपदेष्टा ५१८. जेव्वाणपरमा बुद्धा, णक्खत्ताणं व चंदिमा। तम्हा सया जते दंते, निव्वाणं संघते मुणी ॥२२॥ धर्म द्वीप ५१९. वुल्ममाणाण पाणाणं, किच्चंताग सकम्मुणा। आघाति साहु तं वीवं, पति?सा पवुच्चती ॥ २३ ॥ ५२०. आयगुत्ते सया दंते, छिण्णसोए अणासवे। जे धम्म तुमक्खाति, पडिपुण्णमणेलिसं ।। २४ ।। ५१८. जैसे (अश्विनी आदि २७) नक्षत्रों में चन्द्रमा (सौन्दर्य, सौम्यता परिमाण एवं प्रकाश रूप . गुणों के कारण) प्रधान है, वैसे ही निर्वाण को ही प्रधान (परम) मानने वाले (परलोकार्थी) तत्त्वज्ञ साधकों के लिए (स्वर्ग, चक्रवर्तित्व, धन आदि को छोड़कर) निर्वाण ही सर्वश्रेष्ठ (परम पद) है। इसलिए मुनि सदा दान्त (मन और इन्द्रियों का विजेता) और यत्नशील (यतनाचारी) होकर निर्वाण के साथ ही सन्धान करे, (मोक्ष को लक्ष्यगत रखकर ही सभी प्रवृत्ति करे)। ५१६. (मिथ्यात्व, कषाय एवं प्रमाद आदि संसार-सागर के स्रोतों के प्रवाह (तीवधारा) में बहाकर ले जाते हुए तथा अपने (कृत) कर्मों (के उदय) से दुःख पाते हुए प्राणियों के लिए तीर्थंकर उसे (निर्वाणमार्ग को) उत्तम (विश्रामभूत एवं आश्वासनदायक) द्वीप परहितरत बताते हैं। (तत्त्वज्ञ पुरुष) कहते हैं कि यही (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप निर्वाण मार्ग ही) मोक्ष का प्रतिष्ठान (संसार भ्रमण से विश्रान्ति रूप स्थान, या मोक्षप्राप्ति का आधार) है। ५२०. मन-वचन-काया द्वारा आत्मा की पाप से रक्षा करने वाला (आत्मगुप्त), सदा दान्त, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय आदि संसार के स्रोतों का अवरोधक (छेदक), एवं आश्रवरहित जो साधक है, वही इस परिपूर्ण, अनुपम एवं शुद्ध (निर्वाण मार्गरूप) धर्म का उपदेश करता है। विवेचन-निर्वाणमार्ग : माहात्म्य एवं उपदेष्टा-प्रस्तुत सूत्रगाथात्रयी द्वारा शास्त्रकार ने निर्वाणमार्ग के सम्बन्ध में चार तथ्य प्रस्तुत किये हैं-(१) तत्त्वज्ञ साधक नक्षत्रों में चन्द्रमा की तरह सभी ८ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक २०१ (ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पृ० ६२
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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