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________________ गाथा ४६४ से ४७२ ' (६) जो भाषा सत्य होते हुए भी किसी को अपमानित, तिरस्कृत या बदनाम करने अथवा नीचा दिखाने, उपहास करने या अपना अहंकार प्रदर्शित करने की दृष्टि से बोली जाए । या जो ऐ नीच, रे दुष्ट, तू चोर है, काना है, पापी है ! आदि तुच्छ वचन रूप हो। (७) जिस भाषा की तह में चाटुकारिता, दीनता या स्व-हीनता भरी हो। (८) जो भाषा सत्य होते हुए भी मन में सन्देहास्पद हो, द्वयर्थक हो, निश्चयकारी हो, या जो भाषा सहसा अविचारपूर्वक बोली गई हो। (6) जिस भाषा के बोलने से बाद में पश्चात्ताप हो अथवा बोलने के पश्चात् उसके फलस्वरूप जन्म-जन्मान्तर तक संताप (पीड़ा) पाना पड़े। (१०) जिस बात को सभ्य लोग प्रयत्नपूर्वक छिपाते हैं, उसे प्रकट करने वाली, या किसी की गुप्त बात प्रकट करने वाली हो, इस प्रकार की सब भाषा निषिद्ध है।" लोकोत्तर धर्म के कतिपय आचारसूत्र ४६४. अकुसोले सया भिक्खू, णो य संसग्गिय भए । सुहरूवा तत्थुवस्सग्गा पडिबुज्झेज्ज ते विदू ॥ २८ ॥ ४६५. णण्णत्थ अंतराएणं, परगेहे ण णिसीयए। गामकुमारियं किड्डे, नातिवेलं हसे मुणो ॥ २६ ॥ ४६६. अणुस्सुओ उरालेसु, जयमाणो परिव्वए। चरियाए अप्पमत्तो, पुट्ठो तत्थऽहियासते ॥ ३० ॥ ४६७. हम्ममाणो न कुप्पेज्जा, वुच्चमाणो न संजले । सुमणो अहियासेज्जा, ण य कोलाहलं करे ॥ ३१॥ ४६८. लद्धे कामे ण पत्थेज्जा, विवेगे एसमाहिए। आरियाई सिक्खेज्जा, बुद्धाणं अंतिए सया ॥ ३२ ॥ ११ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १८२-१८३ का तात्पर्य (ख) चार प्रकार की भाषा के लिए देखें-दशवकालिक अ०७ गा०१ से ४ तक __ तथा आचारांग द्वि० श्रु० विवेचन सू० ५२४ पृ० २१७ (ग) “पुव्वं बुद्धीए पेहित्ता पच्छा वक्कमुदाहरे । अचक्खुओ व नेतारं बुद्धिमन्नइ ते गिरा ॥ - दशवैः नियुक्ति गा० २६३
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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