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सूत्रकृताग-नवम अध्ययन-धर्म करने से बड़ों की आशातना और अपने अभिमान की अभिव्यक्ति होती है। अथवा (२) जो साध वचनविभाग को जानने में निपूण है, जो वाणी के बहत से प्रकारों को जानता है, वह दिनभर बोलता हआ न बोलने वाले (वचनगुप्ति युक्त-मौनी) के समान है, क्योंकि वह भाषा-समिति का ध्यान रखकर बोलता है, वह धर्मोपदेश, धर्म-पथ प्रेरणा, धर्म में स्थिरता के लिए मार्ग-दर्शन देते समय पूर्ण सतर्क होकर वाणीप्रयोग करता है।
णेव बफेज मम्मयं-दो अर्थ- (१) बोला हुआ वचन चाहे सत्य हो या असत्य, किन्तु यदि वह किसी के मन में चुभने या पीड़ा पहुंचाने वाला हो तो उसे न बोले, अथवा (२) 'यह मेरा है', ऐसा सोचकर किसी के प्रति पक्षपात युक्त (मामक) वचन न कहे।
मातिढाणं विवज्जेज्जा-दो अर्थ-(१) कपट प्रधान (संदिग्ध, छलयुक्त, द्वयर्थक) वचन का त्याग करे, अथवा (२) दूसरों को ठगने या धोखा देने के लिए साधु मायाचार या दम्भ न करे।"
निर्ग्रन्थ-आज्ञा से सम्मत एवं असम्मत भाषा=दशवकालिक, आचारांग आदि शास्त्रों में चार प्रकार की भाषा बताई है-(१) सत्या, (२) असत्या, (३) सत्या-मषा और (४) असत्या-मषा। इन चारों में से असत्या भाषा तो वर्जनीय है ही, तीसरी भाषा-सत्यामृषा (कुछ झूठी, कुछ सच्ची भाषा) भी वर्जित है। जैसे किसी साधक ने अनुमान से ही निश्चित रूप से कह दिया- 'इस गाँव में बीस बच्चों का जन्म या मरण हुआ है।' ऐसा कहने में संख्या में न्यूनाधिक होने से यह वचन सत्य और मिथ्या दोनों से मिश्रित है। असत्यामषा (व्यवहार) भाषा भी भाषासमिति युक्त बोलने का विधान है। इन तीनों भाषाओं के अतिरिक्त प्रथम भाषा सर्वथा सत्य होते हए भी निम्नोक्त कारणों से साधु के लिए निषिद्ध बताई गई है
(११) जिस वचन को कहने से किसी को दुःख, पीड़ा, उद्वेग, भय, चिन्ता, आघात, मर्मान्तक वेदना, अपमानदंश, मानसिक क्लेश पैदा हो।
(२) जो कर्कश, कठोर, वध-प्रेरक, छेदन-भेदन कारक, अमनोज्ञ एवं ताड़न-तर्जनकारक हो, अर्थात् हिंसा-प्रधान हो।
(३) जो भाषा मोह-ममत्वजनक हो, जिस भाषा में स्वत्व मोह के कारण पक्षपात हो । (४) जो भाषा वाहर से सत्य प्रतीत हो, परन्तु भीतर से दम्भ या छल-कपट से भरी हो।
(५) जो भाषा हिंसादि किसी पाप में श्रोता को प्रेरित करती (सावद्य) हो, जैसे- "इसे मारोपोटो," "चोरी करो", आदि वचन ।
६. 'वयणविहत्तीकुसलोवगयं बहु विहं वियाणतो ।
दिवसं पि भासमाणो साहू वयगुत्तयं पत्तो॥' १०. (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १८२-१८३ (ख) तुलना करें-(अ) दशवकालिक अ०७ गा०६ से २० तक
(आ) आचारांग विवेचन द्वि० श्रु० सू० ५२४ से ५२८ तक पृ० २१७