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४४६. मुसावायं बहिद्ध च, उग्गहं च अजाइयं ।
सत्थादाणा इं लोगंसि, तं विज्जं परिजाणिया ॥ १० ॥
सूत्रकृतांग - नवम अध्ययन - धम
४४४-४४५. पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा हरित तृण, वृक्ष और बीज आदि वनस्पति एवं अण्डज पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज तथा उद्भिज्ज आदि सकाय, ये सब षट्कायिक जीव हैं । विद्वान साधक इन छह कायों से इन्हें (ज्ञपरिज्ञा से) जीव जानकर, (प्रत्याख्यान परिज्ञा से ) मन, वचन और काया से न इनका आरम्भ (वध) करे और न ही इनका परिग्रह करे ।
४४६. मृषावाद, मैथुनसेवन, परिग्रह ( अवग्रह या उद्ग्रह), अदत्तादान, ये सव लोक में शस्त्र के समान हैं और कर्मबन्ध के कारण हैं । अतः विद्वान् मुनि इन्हें जानकर त्याग दे ।
विवेचन - श्रमण धर्म के मूल गुण-गत शेष-वर्जन- प्रस्तुत तीन सूत्रगाथाओं (४४४ से ४४६ तक) में साधु के अहिंसादि पंचमहाव्रतरूप मूलगुणों के दोषों – हिंसा, असत्य आदि के त्याग करने का उपदेश है । *
पजीवनिकाय का वर्णन - दशकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग आदि आगमों में विस्तृत रूप से किया गया है । पृथ्वीकाय आदि प्रत्येक के भी सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त आदि कई भेद तथा प्रकार हैं । प्रस्तुत शास्त्र में भी पहले इसी से मिलता-जुलता पाठ आ चुका है ।
षट्कायिक जीवों का भेद-प्रभेद सहित निरूपण करने के पीछे शास्त्रकार का यही आशय है कि जीवों को भेद-प्रभेदसहित जाने बिना उनकी रक्षा नहीं की जा सकती ।
for शब्दों की व्याख्या - बहिद्ध - मैथुन सेवन, उग्गहं- परिग्रह, अजाइया - अदत्तादान । अथवा "बहि" का अर्थ मैथुन और परिग्रह है तथा 'उग्गहं अजाइया' का अर्थ अदत्तादान है । 'पोयया' - पोतरूप से पैदा होने वाले जीव, जैसे- हाथी, शरभ आदि । 'उग्भिया' - उद्भिज्ज जीव, जैसे - मेंढक, टिड्डी, खंजरीट आदि ।
उत्तरगुण-गत-दोष त्याग का उपदेश
४४७. पलिउंचणं भयणं च, थंडिल्लुस्सयणाणि य । धूणाssदाणाई लोगसि, तं विज्जं परिजाणिया ॥ ११ ॥
४ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १७८-१७९ का सारांश
५ देखिये - ( अ ) दशवैकालिक सूत्र का 'छज्जीवणिया' नामक चतुर्थ अध्ययन
(आ) उत्तराध्ययन सूत्र का 'जीवाजीवविमत्ति' नामक ३६वां अध्ययन
(इ) आचारांग सूत्र प्र० श्रु० का 'शस्त्रपरिज्ञा' नामक प्रथम अध्ययन
(ई) सूत्रकृतांग प्र० श्रु० का कुशील - परिभाषा नामक ७वें अध्ययन की प्रथम गाथा
६ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १७६