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________________ ३५० सूत्रकृतांग - अष्टम अध्ययन - वीर्य अपने-अपने (विविध) स्थानों को छोड़ देंगे । ज्ञातिजनों और सुहृद्जनों के साथ जो संवास है, वह भी अनियत - अनित्य है ।' 116 ४२३. इस (पूर्वोक्त) प्रकार से विचार करके मेधावी साधक इन सबके प्रति अपनी गृद्धि (आसक्ति) हटा दे तथा समस्त (अन्य ) धर्मों से अदूषित (अकोपित) आर्यों (तीर्थंकरों) के इस सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्रात्मक मोक्षमार्ग को स्वीकार ( आश्रय ) करे । ४२४. सन्मति (निर्मल बुद्धि) से धर्म के सार (परमार्थतत्त्व) को जानकर अथवा सुनकर धर्म के सार भूत चरित्र के या आत्मा के ज्ञानादि निज गुणों के उपार्जन में उद्यत अनगार (पण्डितवीर्य-सम्पन्न व कर्मक्षय के लिए कटिबद्ध साधक) पाप (-युक्त अनुष्ठान) का त्याग कर देता है । ४२५. पण्डित (वीर्य सम्पन्न ) साधु यदि किसी प्रकार अपनी आयु का उपक्रम (क्षय-कारण) जाने तो उस उपक्रमकाल के अन्दर (पहले से) ही शीघ्र संलेखना रूप या भक्तपरिज्ञा एवं इंगितमरण आदि रूप पण्डितमरण की शिक्षा का प्रशिक्षण ले - ग्रहण करे । ४२६. जैसे कछुआ अपने अंगों को अपने शरीर में छिपा लेता है, इसी प्रकार से मेधावी ( मर्यादावान् पण्डित) पापों (पापरूप कार्यों) को अध्यात्म ( सम्यग् धर्मध्यानादि की) भावना से समेट ले (संकुचित कर दे) | ४२७. पादपोपगमन, इंगितमरण या भक्त परिज्ञादि रूप अनशन काल या अन्तकाल में पण्डित साधक कछुए की तरह अपने हाथ-पैरों को समेट ले (समस्त व्यापारों से रोक ले ), मन को अकुशल (बुरे) संकल्पों से रोके, इन्द्रियों को (अनुकूल-प्रतिकूल विषयों में रागद्वेष छोड़कर) संकुचित कर ले । ( इहलोक - परलोक में सुख प्राप्ति को कामना रूप ) पापमय परिणाम का तथा वैसे ( पापरूप) भाषा - दोष का त्याग करे । ४२८. पण्डित साधक थोड़ा-सा भी अभिमान और माया न करे । मान और माया का अनिष्ट फल जानकर सद्-असद्-विवेकी साधक साता (सुख सुविधाप्राप्ति के ) गौरव (अहंकार) में उद्यत न हो तथा उपशान्त एवं निःस्पृह अथवा माया रहित (अनिह) होकर विचरण करे । ४२६. वह प्राणियों का घात न करे तथा अदत्त (बिना दिया हुआ पदार्थ ) भी ग्रहण न करे एवं माया - मृषावाद न करे, यही जितेन्द्रिय ( वश्य) साधक का धर्म है । ४३०. प्राणियों के प्राणों का अतिक्रम (पीड़न) (काया से करना तो दूर रहा) वाणी से भी न करे, तथा मन से भी न चाहे तथा बाहर और भीतर सब ओर से संवृत (गुप्त) होकर रहे, एवं इन्द्रियों का दमन करता हुआ साधु आदान (मोक्षदायक सम्यग्दर्शनादि रूप संयम) की तत्परता के साथ समाराधना करे । ६ सूत्रगाथा ४२१ के उत्तरार्द्ध एवं ४२२ में धर्मध्यानारोहण में स्वरूप की) अनुक्षा, और अनित्यानुप्रेक्षा विहित है । ४२२ वीं शेष अनुप्रेक्षाओं का आलम्बन सूचित किया गया है । अवलम्बन के लिए क्रमश: संसार (संसारदुःख गाथा में पठित दो 'य'कार से अशरण आदि - सूत्र० कृ० शी० वृत्ति पत्रांक १७०-१७१
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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