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गाथा ४२० से ४३१
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४२५. जं किंचुवक्कम जाणे, आउखेमस्स अप्पणो ।
तस्सेव अंतरा खिप्पं, सिक्खं सिक्खेज्ज पंडिते ॥१५॥
४२६. जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे ।
एवं पावाई मेधावी, अज्झप्पेण समाहरे ॥१६॥ ४२७. साहरे हत्थ-पादे य मणं सवेंदियाणि य।
पावगं च परीणाम, भासादोसं च तारिसं ॥७॥ ४२८. अणु माणं च मायं च, तं परिणाय पंडिए।
सातागारवणिहुते, उवसंतेऽणिहे चरे ॥१८॥ ४२६. पाणे य णाइवातेज्जा, अदिण्णं पि य णादिए।
सादियं ण मुसं बूया, एस धम्मे वुसीमतो॥१६॥ ४३०. अतिक्कम ति वायाए, मणसा वि ण पत्थए । ____ सव्वतो संवुडे दंते, आयाणं सुसमाहरे ॥२०॥ ४३१. कडं च कज्जमाणं च, आगमेस्सं च पावगं ।
सव्वं तं गाणुजाणंति, आतगुत्ता जिइंदिया ॥२१॥ ४१६ (उत्तरार्द्ध). अब यहाँ से पण्डितों (उत्तम विज्ञ साधुओं के अकर्मवीर्य के सम्बन्ध में मुझसे
सुनो।
.. ४२०. पण्डित (अकर्म) वीर्य पुरुष द्रव्य (भव्य-मुक्तिगमन योग्य अथवा द्रव्यभूत-अकषायी) होता है, कषायात्मक बन्धनों से उन्मुक्त होता है। जो सब प्रकार से कषायात्मक बन्धन काट चुका है, तथा वह पापकर्मों (पापकर्म के कारणभूत आश्रवों) को हटाकर अपने शल्य-तुल्य शेष कर्मों को भी सर्वथा काट देता है।
४२१. (पण्डितवीर्य) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्ष के प्रति ले जाने वाला है, ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है । (पण्डितवीर्य सम्पन्न साधक) इसे ग्रहण करके मोक्ष (ध्यान, स्वाध्याय आदि मोक्ष साधक अनुष्ठानों) के लिए सम्यक् उद्यम करता है । (पण्डित साधक धर्मध्यानारोहण के लिए यों अनुप्रेक्षा करे-) (बालवीर्य अतीत और भविष्य के अनन्त भवों तक) बार-बार दुःख का आवास है। बालवीर्यवान् ज्योंज्यों नरकादि दुःखस्थानों में भटकता है, त्यों-त्यों उसका अध्यवसाय अशुद्ध होते जाने से अशुभ कर्म ही बढ़ता है।
४२२. .... .."निःसन्देह उच्च स्थानों (देवलोक में इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिश आदि तथा मनुष्यलोक में चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि पदों) पर स्थित सभी जीव एक दिन (आयुष्य क्षय होते ही)