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________________ सूत्रकृतांग-पंचम अध्ययन-नरकविमक्ति ३४४. संबाहिया दुक्कडिणो थपंति, अहो य रातो परितप्पमाणा। एगंतकूडे नरए महंते, कूडेण तत्या विसमे हता उ ॥ १८ ॥ ३४५. भंजंति णं पुष्वमरी सरोसं, समुग्गरे ते मुसले गहेतु। ते भिन्नवेहा रुहिरं वमंता, ओमुद्धगा धरणितले पडंति ॥ १६ ॥ ३४६. अणासिता नाम महासियाला, पगम्भिको तत्य सयायकोवा। खज्जति तत्था बहुकूरकम्मा, अदूरया संकलियाहिं बद्धा ॥ २० ॥ ३४७ सदाजला नाम नदी भिदुग्गा पविज्जला लोहविलोणतत्ता। जंसी भिदुग्गंसि पवज्जमाणा, एगाइयाऽणुक्कमणं करेंति ॥ २१ ॥ ३२७. इसके पश्चात् शाश्वत (सतत) दुःख देने के स्वभाव वाले नरक के सम्बन्ध में आपको मैं अन्य बातें यथार्थरूप से कहूँगा कि दुष्कृत (पाप) कर्म करने वाले अज्ञानी जीव किस (जिस) प्रकार पूर्व (जन्म में) कृत स्वकर्मों का फल भोगते हैं। ३२८. परमाधार्मिक असुर नारकीय जोवों के हाथ और पैर बांधकर तेज उस्तरे और तलवार के द्वारा उनका पेट फाट डालते हैं। तथा उस अज्ञानी जीव की (लाठी आदि के प्रहार से) क्षत विक्षत देह को पकड़कर उसकी पीठ की चमड़ी जोर से उधेड़ लेते हैं। ३२६. वे नरकपाल नारकीय जीव की भुजा को मूल से काट लेते हैं, तथा उनका मुख फाड़कर उसमें लोह के बड़े-बड़े तपे हुए गोले डालकर जलाते हैं । (फिर) एकान्त में उनके जन्मान्तरकृत कर्म का स्मरण कराते हैं, तथा अकारण ही कोप करके चाबुक आदि से उनकी पीठ पर प्रहार करते हैं। ३३०. तपे हुए लोह के गोले के समान, ज्योति-सहित जलती हुई तप्त भूमि की उपमायोग्य भूमि पर चलते हुए वे नारकी जीव जलते हुए करुण क्रन्दन करते हैं। लोहे का नोकदार आरा भोंककर (चलने के लिए) प्रेरित किये हुए तथा गाड़ी के तप्त जुए में जुते (जोते) हुए वे नारक (करुण विलाप करते हैं।) ३३१. अज्ञानी नारक जलते हुए लोहमय मार्ग के समान तपी हुई तथा (रक्त और मवाद के कारण) थोड़े पानी वाली (कीचड़ से भरी) भूमि पर परमाधार्मिकों द्वारा बलात् चलाये जाने से (बुरी तरह रोते-चिल्लाते हैं ।) (नारकी जीव) जिस (कुम्भी या शाल्मलि आदि) दुर्गम स्थान पर (परमाधार्मिकों द्वारा) चलाये जाते हैं, (जब वे ठीक से नहीं चलते हैं, तब) (कुपित होकर) डंडे आदि मारकर बैल की तरह उन्हें आगे चलाते हैं। ३३२. तीव्र (गाढ़) वेदना से भरे नरक में पड़े हुए वे (नारकी जीब) सम्मुख गिरने वाली शिलाओं के (द्वारा) नीचे दबकर मर जाते हैं। सन्तापनी (सन्ताप देने वाली) यानी कुम्भी (नामक नरक भूमि) चिरकालिक स्थिति वाली है, जहाँ दुष्कर्मी-पापकर्मी नारक (चिरकाल तक) संतप्त होता रहता है।
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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