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________________ प्रथम उद्देशक : गाथा ३०५ से ३२४ २६७ पायेंगे? इस प्रकार का शब्दजन्य दुःख नरक में है। जिसके लिए सूत्रगाथा ३०५ में शास्त्रकार कहते हैं-"हण छिदह के नाम दिसं वयामो?" नरक में होने वाला नगरवध-सा भयंकर कोलाहल-नरक के जीवों पर जब शीत, उष्ण आदि के भयंकर क्षेत्रीय दुःख, पारस्परिक दुःख और परमाधार्मिक कृत दुःखों का पहाड़ टूट पड़ता है, तब वे करुण आर्तनाद करते हैं-हेमात ! हे तात ! बड़ा कष्ट है ! मैं अनाथ और अशरण हूँ, कहाँ जाऊँ ? कैसे इस कष्ट से बचूं ? मेरी रक्षा करो ! इस प्रकार के करुणाजनक शब्दों में वे पुकार करते हैं। उस समय का चीत्कार नगर में होने वाले सामूहिक हत्याकाण्ड की तरह इतना भयंकर व डरावना होता है कि उसे सुनकर कान के पर्दे फट जाते हैं। वास्तव में नरक का वह कोलाहल नगरवध के समय होने वाले कोलाहल से भी कई गुना बढ़कर तेज, दुःसह, मर्मभेदी, करुणोत्पादक एवं अति दुःखद होता है। नरक में अनिष्ट कुरूपजन्य दुःख-यों तो नरक में नारकों को भोंडे, भद्दे कुरूप शरीर मिलते हैं, उनकी एवं परमाधार्मिकों की डरावनी कर आकृति से भी उन्हें वास्ता पड़ता है। इसके अतिरिक्त नरकभूमियों का दृश्य भी अत्यन्त भयावह होता है, वह भी नारकों के मानस में अत्यन्त दुःख उत्पन्न करता है । शास्त्रकार ने इस उद्देशक में नरक के भयंकर रूप सम्बन्धी चर्चा सूत्रगाथा ३१० में की है। (१) सघन अन्धकार पूर्ण दुस्तर और विशाल नरक-असूर्य नाम का एक नरक है, जहाँ सूर्य बिलकुल नहीं होता। यों तो सभी नरकों को असूर्य कहते हैं। असूर्य होने के कारण नरक घोर अन्धकार पूर्ण होता है, तथापि वह प्रचण्ड तम से युक्त होता है। नरक इतना दुस्तर होता है कि उसका ओर-छोर नहीं दिखता । इतना विशाल और दीर्व होने के कारण उसे पार करना कठिन होता है। ऐसे विशाल लम्बे, चौड़े और गहरे नरक में पापी प्राणी जाते हैं, रहते हैं, स्वकृत पापकर्मों का दुःखद फल भोगते हैं। साथ ही वहाँ ऊँची, नीची एवं तिरछी सभी दिशाओं में व्यवस्थित रूप से लगाई गई आग निरंतर जलती रहती हैं। उस आग की लपटें दूर-दूर तक ऊपर उठती हैं । बेचारे नारक जीव वहाँ के इस भयंकर दृश्य को देख एक क्षण भी कैसे चैन से रह सकते हैं ? शास्त्रकार कहते हैं-'असूरियं नाम "अंधंतमं दुप्पतरं महंतं. "जत्थऽगणी झियाति । रक्त और मवाद से परिपूर्ण कुम्भी : बीमत्स-सामान्य मनुष्य को यदि थोड़ी-सी देर के लिए भी खन और मवाद से भरी कोठरी या भूमि में छोड़ दिया जाए तो वह उसकी दुर्गन्ध को सह नहीं सकेगा, उसकी नाक फट जाएगी, दुर्गन्ध के मारे । उसे वह दुःख असह्य प्रतीत होगा, किन्तु नरक में तो कोसों तक भूमि, मूत्र, खून, मवाद एवं विष्ठा की कीचड़ से लथपथ है । दूर-दूर तक उसकी बदबू उठती है। प्रस्तुत उद्देशक में सूत्र गाथा ३२३ में एक कुम्भी का वर्णन किया गया है, जो देखने में भी अत्यन्त घणास्पद और बीभत्स है, उसको दुर्गन्ध भी असह्य होती है, क्योंकि वह रक्त और मवाद से लबालब भरी होती हैं, वह पुरुष के प्रमाण से भी अधिक प्रमाण वाली ऊँट के आकार की बहुत ऊँची होती है। वह कुम्भी चारों ओर तीव्र आग से जलती रहती है । रोते-चिल्लाते नारकों को उस कुम्भी में जबरन डालकर पकाया जाता है । दुर्गन्ध का कितना दारुण दुःसह दुःख होता होगा उन नारकों को ? शास्त्रकार उस कुम्भी का वर्णन करते हुए कहते हैं-"जइ ते सुता... "लोहितपूय पुण्णा।"
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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