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सूत्रकृतांग-पचम अध्ययन-नरकविमक्ति
- ३२०. नारकी जीवों के रहने का सारा का सारा स्थान सदा गर्म रहता है, और वह स्थान उन्हें गाढ़ बन्धन से बद्ध (निधत्त-निकाचित) कर्मों के कारण प्राप्त होता है। अत्यन्त दुःख देना ही उस स्थान का धर्म-स्वभाव है। नरकपाल नारकी जीवों के शरीर को बेड़ी आदि में डाल कर, उनके शरीर को तोड़-मरोड़ कर और उनके मस्तक में छिद्र करके उन्हें सन्ताप देते हैं। ___३२१. नरकपाल अविवेकी नारकी जीव की नासिका को उस्तरे से काट डालते हैं, तथा उनके ओठ और दोनों कान भी काट लेते हैं और उनकी जीभ को एक बित्ताभर बाहर खींचकर उसमें तीखे शूल भोंककर उन्हें सन्ताप देते हैं।
___ ३२२. उन (नारकी जीवों) के (कटे हुए नाक, औठ, जीभ आदि) अंगों से सतत खून टपकता रहता है, (इस भयंकर पीड़ा के मारे) वे विवेकमूढ़ सूखे हुए ताल (ताड़) के पत्तों के समान रातदिन वहाँ (नरक में) रोते-चिल्लाते रहते हैं। तथा उन्हें आग में जलाकर फिर उनके अंगों पर खार (नमक आदि) लगा दिया जाता है, जिससे उनके अंगों से मवाद, मांस और रक्त चूते रहते हैं।
३२३-३२४. रक्त और मवाद को पकाने वाली, नवप्रज्वलित अग्नि के तेज से युक्त होने से अत्यन्त दुःसहताप युक्त, पुरुष के प्रमाण से भी अधिक प्रमाणवाली, ऊँची, बड़ी भारी एवं रक्त तथा मवाद से भरी हुई कुम्भी का नाम कदाचित् तुमने सुना होगा।
आर्तनाद करते हुए तथा करुण रुदन करते हुए उन अज्ञानी नारकों को नरकपाल उन (रक्त एवं मवाद से परिपूर्ण) कुम्भियों में डालकर पकाते हैं। प्यास से व्याकुल उन नारकी जीवों को नरकपालों द्वारा गर्म (करके पिघाला हआ) सीसा और ताम्बा पिलाये जाने पर वे आर्तस्वर से चिल्लाते हैं।
विवेचन....नरक में नारकों को प्राप्त होने वाली भयंकर वेदनाएँ-सूत्रगाथा ३०५ से ३२४ तक बीस गाथाओं में नरक में नारकी जीवों को अपने पूर्वकृत पापकर्मानुसार दण्ड के रूप में मिलने वाले विभिन्न दुःखों और पीड़ाओं का करुण वर्णन है। नारकों को मिलने वाले भयंकर दुःखों को दो विभागों में बांटा जा सकता है-(१) क्षेत्रजन्य दुःख और (२) परमाधार्मिककृत दुःख ।
क्षेत्रजन्य दुःख-क्षेत्रजन्य दुःख नरक में यत्र-तत्र-सर्वत्र है। वहां के शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श सभी अमनोज्ञ, अनिष्ट, दुःखद एवं दुःसह्य होते हैं। शास्त्रकार द्वारा इस उद्दशक में वर्णित शब्दादि जन्य दुःखों का क्रमशः विवेचन इस प्रकार है-अमनोज्ञ भयंकर दुःसह शब्द-तिर्यञ्च और मनुष्य भव का त्याग कर नरकयोग्य प्राणियों की अण्डे से निकले हुए दोम पक्षविहीन पक्षी की तरह नरक में अन्तमुहूर्त में शरीरोल्पत्ति होती है, तत्पश्चात् ज्योंही वे पर्याप्तियों से युक्त होते हैं, त्यों ही उनके कानों में परमाधार्मिकों के भयंकर अनिष्ट शब्द पड़ते हैं-यह पापी महारम्भ-महापरिग्रह आदि पापकर्म करके आया है, इसलिए इसे मुद्गर आदि से मारो, तलवार आदि से काटो, इसके टुकड़े-टुकड़े कर दो, इसे शूल आदि से बींध दो, भाले में पिरो दो, इसे आग में झौंक कर जला दो; ये और इस प्रकार के कर्णकटु मर्मवेधी भयंकर शब्दों को सुनते ही उनका कलेजा कांप उठता है, वे भय के मारे बेहोश हो जाते हैं। होश में आते ही किंकर्तव्य विमूढ़ एवं भय-विह्वल होकर मन ही मन सोचते हैं कि अब कहाँ किस दिशा में भागें, कहाँ हमारी रक्षा होगी? कहाँ हमें शरण मिलेगी? हम इस दारुणदुःख से कैसे छुटकारा