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________________ २६२ सूत्रकृतांग - पचम अध्ययन - नरकविभक्ति होती, जो जानवरों की कत्ल एवं मछलियों का वध करके अपनी जीविका चलाते हैं, जिनके परिणाम सदैव प्राणिवध करने के बने रहते हैं, जो कभी प्राणिवध आदि पापों से निवृत और शान्त नहीं होते, ऐसे पापकर्मी मूढ़ जीव अपने किये हुए पापकर्मों का फल भोगने के लिए नरक जाते हैं । इसी तथ्य को शास्त्रकार ने संक्षेप में तीन गाथाओं में व्यक्त किया है - 'जे केई बाला...नरए पडंति' 'तिब्वंत से.... सेयवियस किचि', और 'पागमपाणे घातमुवेति बालें ।" वे पापी कैसे-कैसे नरक में जाते हैं ? - नरक तो नरक ही है, दुःखागार है, फिर भी पापकर्म की तीव्रता - मन्दता के अनुसार तीब्र - मन्द पीड़ा वाली नरकभूमि उन नरकयोग्य जीवों को मिलती है । प्रस्तुत में सूत्र गाथ ३०२ और ३०४ में विशिष्ट पापकर्मियों के लिए विशिष्ट नरकप्राप्ति का वर्णन किया गया है - (१) ते घोररूवे तमिसंधयारे तिब्वाभितावे नरए पडंति' तथा (२) जिहो जिसं गच्छइ अंतकाले, अहोसिरं कट्टु उवे दुग्गं ।' - पहले प्रकार के पापकर्मी एवं रौद्र बालजीव जिस प्रकार के नरक में गिरते हैं, उसके तीन विशेषण शास्त्रकार ने प्रयुक्त किये हैं - (१) घोर रूप, (२) तमिस्रान्धकार ( ३ ) तीव्राभिताप । नरक में इतने विकराल एवं क्रूर आकृति वाले प्राणी एवं परमाधार्मिक असुर हैं, तथा विकराल दृश्य हैं, इस कारण नरक को घोररूप कहते हैं । नरक में अन्धकार इतना गाढ़ और घोर है कि वहाँ हाथ को हाथ नहीं सूझता, अपनी आँखों से अपना शरीर भी नहीं दिखाई देता । जैसे उल्लू दिन में बहुत ही कम. देखता है, वैसे ही नारकीय अवधि ( या विभंग) ज्ञान से भी दिन में मन्द मन्द देख सकता है। इस संबंध में आगम- प्रमाण भी मिलता है । इसके अतिरिक्त नरक में इतना तीव्र दु:सह ताप (गर्मी) है उसे शास्त्र - कार खैर के धधकते लाल-लाल अंगारों को महाराशि से भी अनन्तगुना अधिक ताप बताते हैं । चौथी और पांचवी गाथा में बताए अनुसार जो पापकर्म करते हैं, वे नरक-योग्य जीव अपने मृत्यु काल में नीचे ऐसे नरक में जाते हैं, जहाँ घोर निशा है, अर्थात् - जहाँ उन्हें द्रव्यप्रकाश भी नहीं मिलता और ज्ञानरूप भावप्रकाश भी नहीं । वे नारकीय जीव अपने किये हुए पापकर्मों के कारण नीचा सिर करके भयंकर दुर्गम यातनास्थान में जा पहुंचते हैं, अर्थात् - ऐसे घोर अन्धकारयुक्त नरक में जा गिरते हैं, जहाँ गुफा में घुसने की तरह सिर नीचा करके जीव जाता है । नारकों को भयंकर वेदनाएँ ३०५. हण छिंदह भिदह णं दहद, सद्दे सुणेत्ता परधम्मियाणं । ते नारगा ऊ भयभिन्नसण्णा, कंखंति कं नाम दिसं वयामो ॥ ६ ॥ ३०६. इंगालरासि जलियं सजोति, ततोवमं भूमि अणोक्कमंता । ते उज्झमाणा कलुणं थणंति, अरहस्सरा तत्थ चिरद्वितीया ॥ ७ ॥ ३०७ जइ ते सुता वैतरणीऽभिदुग्गा, निसितो जहा खुर इव तिक्खसोता । तरंति ते वेयणि भिदुग्गं, उसुचोदिता सत्तिसु हम्ममाणा ॥ ८ ॥ २ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १२६-१२७ ३ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १२६-१२७
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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