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________________ प्रथम उद्देशक : ३०० गाथा से ३०४ २६१ इसके पश्चात् यह बताया गया है कि नरक में कौन-से प्राणी और किन कारणों से जाते हैं ?तीन गाथाओं में इसका समाधान दिया है, जो (१) बाल है (२) रौद्र है (३) जीवितार्थ पापकर्म करते हैं, ख के लिए त्रस-स्थावर प्राणियों की तीव्रतम रूप से हिंसा करते हैं, (५) जो निर्दयतापूर्वक प्राणियों का उपमर्दन करते हैं, (६) जो चोरी-अपहरण, लूटमार या डकैती द्वारा बिना दी हुई परवस्तु का हरण करते हैं, (७) जो सेवनीय संयम का जरा भी अभ्यास (सेवन) नहीं करते, (८) जो धृष्ट होकर बहुत-से प्राणियों का वध करते हैं, (९) जिनकी कषायाग्नि कभी शान्त नहीं होती, (१०) जो मूढ़ हर समय घात में लगा रहता है वह अन्तिम समय (जीवन के अन्तिम काल) में नीचे घोर अन्धकार (अन्धकारमय नरक) में जाता है, जहाँ नीचा सिर किये कठोर पीड़ा स्थान को पाता है । वह घोररूप है, गाढ़ अन्धकारमय है, तीव्र ताप युक्त है, जहाँ वह गिरता है।' नरकयात्री कौन और क्यों ?-नरक में वे अभागे जीव जाते हैं, जो हित में प्रवत्ति और अहित से निवृत्ति के विवेक से रहित अज्ञानी हैं, रागद्वेष की उत्कटता के कारण जो आत्महित से अनजान तिर्यञ्च और मनुष्य है, अथवा जो सिद्धान्त से अनभिज्ञ होने के कारण महारम्भ, महापरिग्रह, पंचेन्द्रिय जीवों के वध एवं मांसभक्षण आदि सावद्य अनुष्ठान में प्रवृत्त हैं, वे बाल हैं। जो प्राणी स्वयं रौद्र है, कर्म से भी वचन से भी, विचारों एवं आकृति से भी रोद्र (भयंकर) हैं, जिन्हें देखते ही भय पैदा होता है । जो सुख और ऐश में जीवनयापन करने के लिए पापोपादानरूप घोर कर्म करते हैं, हिंसा, चोरी, डकैती, लटपाट, विश्वासघात, आदि भयंकर पापकर्म करते हैं। इसके अतिरिक्त जो जीव महामोहनीय कर्म के उदय से इन्द्रिय सुखों का लोलुप बनकर बेखटके त्रस और स्थावर जीवों की निर्दयतापूर्वक रौद्रपरिणामों से हत्या करता हे, नाना उपायों से जीवों का उपमर्दन (वध, बन्ध, शोषण, अत्याचार आदि) करता है तथ अदत्ताहारी है-यानी चोरी, लूटपाट, डकैती, अन्याय, ठगी, धोखाधड़ी आदि उपायों से बिना दिया परद्रव्य हरण करता है, अपने श्रेय के लिए जो सेवन (अभ्यास) करने योग्य, या साधुजनों द्वारा सेव्य संयम है, उसका जरा भी सेवन (अभ्यास) नहीं करता है, अर्थात्-पापकर्म के उदय के कारण जो काकमांस जैसी तुच्छ, त्याज्य, घृणित एवं असेव्य वस्तु से भी विरत नहीं होता। इसी प्रकार जो प्राणिहिंसा आदि पाप करने में बड़ा ढीठ है जिसे पापकर्म करने में कोई लज्जा, संकोच या हिचक नहीं होती। जो बेखटके बहत-से निरपराध और निर्दोष प्राणियों की निष्प्रयोजन हिंसा कर डालता है। जब देखो तब प्राणियों के प्राणों का अतिपात (घात) करने का जिसका स्वभाव ही बन गया है, अर्थात जो लोग करसिंह, और सर्प के समान बेखटके आदतन प्राणियों का वध करते हैं, अथवा अपने स्वार्थ या किसी मतलब से धर्मशास्त्र के वाक्यों का मनमाना अर्थ लगाकर या किसी कुशास्त्र का आश्रय लेकर हिंसा, असत्य, मद्यपान, मांसाहार, शिकार, मैथुन-सेवन आदि की प्रवृत्ति को स्वाभाविक कहकर निर्दोष बताने की धृष्टता करते हैं। ____ अथवा कई हिंसापोषक मिथ्यावादी लोग कहते हैं-'वेदविहिता हिंसा हिंसा न भवति'-वेद विहित यज्ञादि में होने वाली पशुवधरूप हिंसा आदि हिंसा नहीं होती। कई मनचले शिकार को क्षत्रियों या राजाओं का धर्म बताकर निर्दोष प्राणियों का वध करते हैं । तथा जिनकी कषायाग्नि कभी शान्त नहीं १ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १२६ के अनुसार
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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