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प्रथम उद्देशक : गाथा २४७ से २७७
२६६ भला मैं ऐसा कुलीन और समझदार व्यक्ति इस प्रकार का दुष्कृत्य कैसे कर सकता हूँ? मेरी भी तो इज्जत हैं (' इस प्रकार वह पापकर्म करके भी समाज में सम्मान और शान के साथ जीना चाहता है।) ऐसा व्यक्ति सदाचारी, त्यागी, तपस्वी एवं संयमी न होते हुए भी वैसा कहलाने हेतु मायाचार करता है। वह अपने कृत पापकर्म को छिपाकर बाहर से ऐसा डौल रचता है, ताकि उसकी ओर कोई अंगूली न उठा सके। ऐसे साधक की अन्तरात्मा हरदम भयभीत, शंकित और दबी हुई रहती है कि कहों मेरी पोलपट्टी खुल न जाए। यह कितनी भयंकर विडम्बना है, साधक जीवन की ! शास्त्रकार सूत्रगाथा २७५ में इसी अवदशा को व्यक्त करते हुए कहते हैं- 'बालस्समंदयं ...पूयणकामेविसण्णेसी।
ये और इस प्रकार की कई अवदशाएँ स्त्रीजन्य उपसर्ग से पराजित साधक के जीवन में चरितार्थ होती हैं। अगर साधक इस अध्ययन में बताये हुए स्त्री संग रूप उपसर्ग के विभिन्न रूपों से सावधान हो जाए और अप्रमत्त होकर शास्त्रकार द्वारा दी गई प्रेरणाओं के अनुसार संयमनिष्ठ रहे तो वह इन अवदशाओं का भागी नहीं होता, अन्यथा उसकी अवदशा होती ही है।
पाठान्तर और व्याख्या-विवित्त सा=वृत्तिकार के अनुसार-विविक्त स्त्री-नपुसंकादि रहित स्थान को अन्वेषण परायण, विवित्तसु पाठान्तर का अर्थ है-विविक्त-स्त्री-पशु-नपुसंक-वजित स्थानों में विचरण करूंगा। चूर्णिकार ने 'विवित्तसी' शब्द के तीन अर्थ किये हैं -'विविक्तान्येषतीति विवित्त सी, विविक्तानां साधनां मार्गमेषतीति विवित्तसी अथवा कर्मविवित्तो मोक्खो, तमेवैषतीति विवित्तमेसी।' अर्थात-विविक्तैषी=एकान्त पवित्र स्थानों को ढंढ़ने में तत्पर, अथवा विविक्तैषी-विविक्तों यानी साधुओं के मार्ग का अन्वेषण करने वाला या विविक्त=कर्म से विविक्त-रहित अवस्था मोक्ष, उसे जो चाहता है, वह विविक्तैषी है।
परक्कम वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं-'पराक्रम्य" यानी साधु के समीप आकर, अथवा . पराक्रम्य अर्थात्-शील से स्खलित, होने योग्य बनाकर उस (साधु) पर हावी होकर । पाठान्तर है'परिक्कम', जिसका अर्थ होता है-साधु को चारों ओर से घेरकर, अथा उसके शील पर चारो ओर से आक्रमण करके लिस्संति स्त्रीसंग में लिप्त हो जाते हैं, या फिसल जाते हैं। उवायं पिता ओ जाणिसवृत्तिकार के अनुसार- साधु को छलने का उपाय भी वे जान चुकी होती हैं। 'जाणिसु' के बदले जाणंति पाठान्तर है, उसका अर्थ होता हैं-'जानती हैं।' यही पाठान्तर तथा अर्थ चूर्णिकार मान्य है। पोसवत्थं-वृत्तिकार के अनुसार-काम को पुष्ट - उत्तेजित करने वाले सुन्दर वस्त्र। चूर्णिकार के अनुसार पोसवत्थं णाम णिवसणं अर्थात पोषवस्त्र का अर्थ है-कामांगों को आच्छादित करने वाला वस्त्र । बाहुमुखटू फक्खमणवज्जे-वृत्तिकार के अनुसार-बाहें उघाडकर या ऊची करके कांख दिखाकर साधु के अनुकूल
कल - अभिमुख (सामने से) होकर जाती है। चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर है-बाहट करखं परामुसे अर्थात् - बाहें उठाकर कांख को छूती या सहलाती है । काँख पर हाथ फिराती है। सयणाऽऽसण जोग्गेण-शयन-पलंग, शय्या, गद्दा या शयनगृह आदि, आसन-कुर्सी, आरामकुर्सी या चौकी, गलीचा आदि उपभोग योग्य वस्तुओं के उपभोग के लिए।
समभिजाणे-स्वीकार न करे, वचनबद्ध न हो। पाठान्तर है-समणुजाणे ।' अर्थ समान है।
५ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १०४ से १११ तक के अनुसार ।