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________________ २६८ सूत्रकृतांग : चतुर्थ अध्ययन : स्त्रीपरिज्ञा है, झेंप जाता है, या उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लग जाती हैं या उसका चेहरा फीका हो जाता है, अथवा मर्माहत -सा खित्र होकर कहता है- मुझ पर पाप की आशंका की जाती है, तब मुझे पापरहित होकर क्या करना है, यों ही सही !' इस प्रकार कुशील साधक की संघ और समाज में बड़ी दुर्गति होती है। शास्त्रकार सू० गा० २६५ में इसी अवदशा को सूचित करते हैं- 'सयं दुक्कडं गिलाइ से भुज्जो ।' ग्यारहवीं अववशास्त्रीजन्य आकर्षण इतना प्रबल होता है कि बड़े-बड़े इन्द्रिय-विजेता पुरुष भी महामोहान्ध होकर नारियों के वश में हो जाते हैं । वे स्त्रियों के इतने गुलाम हो जाते है कि वे स्वप्न में बड़बड़ाती हुई स्त्री भला या बुरा जो भी कार्य करने को उनसे कहती हैं, वे उसे करते हैं। ऐसे भुक्तभोगी परिपक्व साधक की भी जब इतनी विडम्बना हो जाती है, तब सामान्य कच्चे साधक की तो बात ही क्या ? इसी अवदशा को शास्त्रकार सू० गा० २६६ में व्यक्त करते हैं- 'उसिया वि... उवकसंति ।' बारहवीं अववशा - जो व्यक्ति (साधुवेषी) स्त्रियों से संसगं रखते हैं वे रंगे हाथों पकड़े जाएँ तो सामाजिक लोगों या राजपुरुषों द्वारा उनके हाथ-पैर काट डाले जाने की सम्भावना है, अथवा उसकी चमड़ी उधेड़ी जा सकती है, तथा माँस भी काटा जा सकता है । यह भी सम्भव है कि उस स्त्री के स्वजन वर्ग द्वारा उकसाए हुए राजपुरुष उक्त परस्त्रीलम्पट साधुवेषी को भट्टी पर चढ़ाकर आग में जला दें, या उसका अंग छीलकर उस पर नमक आदि खार पदार्थ छिड़क दें। इसी अवदशा को व्यक्त करते हुए शास्त्रकार २६७वीं सूत्रगाथा में कहते हैं - 'अवि हत्यपावछेदाए तच्छ् िखारसिचणाइं च ।' तेरहवीं अवदशा- - ऐसे पाप-संतप्त (पापाग्नि से जलते हुए) साधुवेषी पुरुष अपने कृत पाप के फलस्वरूप इस लोक में कान और नाक का छेदन या गले का छेदन तक सहन कर लेते हैं, तथा परलोक में नरक आरि दुर्मतियों में अनेक प्रकार की यातनाएँ भी सह लेते हैं, लंकिन यह निश्चय नहीं कर सकते कि अब भविष्य में पापकर्म नहीं करेंगे । अर्थात् - इहलोक एवं परलोक के भयंकर दुःख उन्हें मंजूर हैं, लेकिन पापकर्म छोड़ना मंजूर नहीं । शास्त्रकार इसी अवदशा को सू० गा० २६७ में अभिव्यक्त करते हैं'अतु कण्णणासियाच्छेज्जं पुणो न काहिति ।' चौदहवीं अवदशा - संसार में फँसाने वाली नारी में आसक्त, उत्तम सदाचार से भ्रष्ट एवं इहलोक परलोक के नाश से नहीं डरने वाले कई उद्धत साधुवेषी पुरुष मैथुन सेवन आदि पाप कर्म करते हैं, किन्तु आचार्य, गुरु आदि के द्वारा पूछे जाने पर बिल्कुल इन्कार करते हुए कहते हैं- मैं ऐसे वैसे कुल उत्पन्न ऐरा गैरा साधु नहीं हूँ; जो पाप कर्म के कारणभूत अनुचित कर्म करू । यह तो मेरी पुत्री के समान है, यह बाल्यकाल में मेरी गोदी में सोती थी । अतः उस पूर्वाभ्यास के कारण ही यह मेरे साथ ऐसा आचरण करती है । वस्तुतः मैं संसार के स्वभाव को भलीभांति जानता हूँ । प्राण चले जाएँ, मगर मैं व्रत- नाश नहीं करूंगा।' इस प्रकार कपट करके पाप को छिपाने वाला साधु मोह कर्म से और अधिक लिप्त हो जाता है। कितनी भयंकर अधोदशा है, स्त्रीमोहियों की ! इसे ही शास्त्रकार २७४ वीं सू. गा. में व्यक्त करते हैं- कुब्वंति पावगं " अंकेसाइणी ममेस ति' । पन्द्रहवी अववशा - रागद्वेष से आकुलबुद्धि वाले अतत्त्वदर्शी मूढ साधक की यह दूसरी मूढ़ता है कि एक तो वह लम्पटतापूर्वक अकार्य करके चतुर्थ महाव्रत का नाश करता है. दूसरे, वह किये हुए उक्त दुष्कृत्य का स्वीकार न करके मिथ्या भाषण करता हुआ कहता है- मैंने यह दुष्कर्म हर्गिज नहीं किया है,
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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