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प्रथम उद्देशक: गाथा २४७ से २७७
इसी प्रेरणा को शास्त्रकार २७७वीं सूत्रगाथा द्वारा अभिव्यक्त करते हैं:-"गोवारमेव""पुणोमते ।'
स्त्रीसंग से भ्रष्ट साधक को अवदशा-प्रस्तुत उद्देशक में शास्त्रकार ने स्त्री संगरूप उपसर्ग के अनेक रूप और उनसे सावधान रहने की यत्र-तत्र प्रेरणाएँ दी हैं, इनके बावजूद भी जो साधक स्त्रीसंग से भ्रष्ट हो जाता है, उसकी कैसी अवदशा होती है, उसके कुछ नमूने शास्त्रकार ने इस उद्देशक में दिये हैं, शेष द्वितीय उद्देशक में प्रतिपादित हैं।
___ पहली अवदशा-जब साधु मायाविनी स्त्रियो के मोहक वागविलासों, मधुरालापों, करुणाजनक सम्बोधनों एवं वाक्यों से प्रभावित होकर उनका वशवर्ती हो जाता है, अथवा किसी स्त्री के रूप-रंग, अंगविन्यास आदि देखकर स्वयं कामज्वर से पीड़ित हो जाता है, तब वे कामिनियाँ उस साधक की दुर्बलता को जानकर उसे इतना बाध्य कर देती हैं कि फिर उस शीलभ्रष्ट साधक को उनके इशारे पर नाचना पड़ता है। वे स्त्रियाँ जैसी आज्ञा देती हैं, वैसे ही उन्हें चुपचाप करना पड़ता है। इसी अवदशा को शास्त्रकार २५३वीं सूत्रगाथा में अंकित करते हैं-आणवयंति भिन्नकहाहि ।
दूसरी अवदशा-उसके पश्चात् वे स्त्रियाँ पूर्वोक्त अनेक उपायों से मन-वचन-काया को संवृत-सुरक्षित (गुप्त) रखने वाले उस कठोर संयमी साधु को अपने मोहपाश में इस तरह बांध लेती हैं, जिस तरह वन में एकाकी और निर्भय विचरण करने वाले पराक्रमी सिंह को मांस आदि का लोभ देकर सिंह को पकड़ने वाले चतुर शिकारी विविध उपायों से उसके गले में फंदा डालकर बांध लेते हैं। फिर वे उसे अनेक यातनाएँ देकर पालतू जानवर की तरह काबू में कर लेते हैं । साधक की इस अवदशा को शास्त्रकार २५४वीं सूत्रगाथा द्वारा प्रकट करते हैं-'सोहं जहा व""एगतियमणगारं"
तीसरी अबदशा-नारियों के मोहपाश में बंध जाने के पश्चात् साधु को वे अपने मनचाहे अर्थ में इस तरह झुका लेती है, जिस तरह रथकार रथ के चक्र के बाहर की पुट्ठी को क्रमशः गोलाकार बना कर नमा देता है। स्त्री के मोहपाश में बँधा हुआ साधु फिर चाहे जितनी उछलकूद मचा ले, वह पाश से मुक्त नहीं हो सकता। यह उक्त साधु की तीसरी अवदशा है, जिसे सूचित करते हुए २५५वीं सूत्रगाथा में शास्त्रकार कहते हैं-'अह तत्थ पुणो नमयंति..""फंदते वि ण मुच्चए ताहे।'
चौथी अवदशा-साधु की उस समय होती है, जब वह स्त्रीसंसर्गरूपी झूठन या त्याज्य निन्द्यकर्म में अत्यन्त आसक्त हो जाता है । उसी के सेवन में प्रवृत्त हो जाता है। शास्त्रकार कहते हैं-ऐसा कुशील पाशस्थ या पार्श्वस्थ, अवसत्र, संसक्त और अपच्छन्द रूप कुशील साधकों में कोई एक है, अथवा वह काथिक, पश्यक, सम्प्रसारक और नामक रूप कुशीलों में से कोई एक कुशील है। यह निश्चित है कि स्त्रीसंग आदि निन्द्य कृत्यों से ऐसी कुशील दशा प्राप्त हो जाती है। ऐसा कुशील साधु सामाजिक एवं राजकीय दृष्टि से निन्द्य एवं दण्डनीय होता है । इसो तथ्य को शास्त्रकार २५८वीं सूत्रगाथा के पूर्वाद्धं द्वारा व्यक्त करते हैं-'जे एयं......"ते कुसीलाणं ।'
पाँचवी अववक्षा-साधु को एकान्त स्थान में किसी स्त्री के साथ बैठे हुए या वार्तालाप करते हुए
५ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १०४ से ११३ के अनुसार ।