SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६४ सूत्रहतांग-चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिज्ञा एकान्त में बैठे देखकर सामान्य लोगों को शंका उत्पन्न हो सकती है। यही प्रेरणा शास्त्रकार ने २५६ वीं सूत्रगाथा में अभिव्यक्त की हैं- 'अवि धूयराहि""संथवं से णेव कुज्जा अणगारे ।' तेरहवीं प्रेरणा-स्त्रीसंसर्ग करने से साधु का समाधियोग (धर्मध्यान के कारण होने वाली चित्त की समाधि अथवा श्रत-विनय-आचार-तपरूप समाधि का योग मन-वचन काय का शुभ व्यापार) नष्टभ्रष्ट हो जाता है। स्त्रियों के आवास स्थानों में बार-बार जाना, उनके साथ पुरुषों की उपस्थिति के बिना बैठना, संलाप करना, उन्हें रागभाव से देखना ये सब वेदमोहोदय जनित स्त्री-संस्तव-गाढपरिचय साधु को समाधि योग से भ्रष्ट करने वाले हैं । इसीलिए शास्त्रकार २६२वीं सूत्र गाथा में प्रेरणा देते हैं - "कुव्वंति संथवं ताहि""तम्हा समणा ण समेंति "सण्णिसेज्जाओ।" चौदहवीं प्रेरणा-साधु को अपने ब्रह्मचर्य-महाव्रत की सभी ओर से सुरक्षा करनी आवश्यक है। इसलिए चाहे स्त्री सच्चरित्र हो, श्राविका हो, धर्मात्मा नाम से प्रसिद्ध हो, सहसा विश्वास न करे। ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए नौ बाड़ के पालन में जरा भी शिथिलता न दिखाए। इसमें किसी स्त्री की अवमानना या निन्दा करने की दृष्टि नहीं, किन्तु शील भ्रष्टता से अपनी रक्षा की दृष्टि है। कई स्त्रियाँ बहुत मायाविनी भी होती है, वे विरक्ता के रूप में, श्राविका या भक्ता के रूप में साधु को छलकर या फुसला कर शीलभ्रष्ट कर सकती हैं। इसीलिए २७०वीं सूत्रगाथा में शास्त्रकार स्त्रीसंगरूप अनर्थ (उपसर्ग) से बचने के लिए प्रेरणा देते हैं- "अन्नं मण"तम्हा ण सह हे 'णच्चा।" पन्द्रहवीं प्रेरणा-जिस तरह लाख का घड़ा, आग के पास रखते ही पिघल जाता है, वह शीघ्र ही चारों ओर से तपकर गल (नष्ट हो जाता हैं, वैसे ही ब्रह्मचारी भी स्त्री के साथ निवास करने शिथिलाचारी एवं संयम भ्रष्ट हो जाता है चाहे वह कितना ही विद्वान श्रुतधर क्यों न हो। स्त्री का संवास एवं संसर्ग तो दूर रहा, स्त्री के स्मरण मात्र से ब्रह्मचारी का संयम नष्ट हो जाता है। इसलिए ब्रह्मचारी के लिए स्त्री संसर्ग से दूर रहना ही हितावह है। शास्त्रकार भी २७२ एवं २७३ इन दो सूत्रगाथाओं द्वारा इस प्रेरणा को व्यक्त करते हैं- 'जतुकुम्भे जहा उवज्जोती"सीएज्जा' 'जतुकुम्भ णासमुवयंति । सोलहवीं प्रेरणा-पूर्वोक्त गाथाओं में वर्णित कामुक एवं मायाविनी स्त्रियों द्वारा दिये जाने वाले विविध प्रलोभनों को साधु सूअर को फंसाने के लिए डाले जाने वाले चावलों के दानों की तरह समझे। स्त्री संसर्ग सम्बन्धी जितने भी आकर्षण या प्रलोभन हैं उन सबसे मुमुक्षु साधु बचे, सतर्क रहे, आते ही उन्हें मन से खदेड़ दे, उनके पैर न जमने दे। फिर वह उस मोहपाश को तोड़ नहीं सकेगा, वह अज्ञ साधक पुनः-पुनः मोह के भंवरजाल में गिरता रहेगा। उसका चित्त मोहान्धकार से घिर जाएगा, वह कर्तव्य विवेक न कर सकेगा। अतः शास्त्रकार साधु को प्रेरणा देते हैं कि किसी भी स्त्री के बुलावे और मनुहार पर अपने विवेक से दीर्घदष्टि से विचार करे और उक्त प्रलोभन में न फंसे, अथवा एक बार संयम लेने के बाद साधु पुन: गृहरूपी भंवर में पड़ने की इच्छा न करे। ४ देखिये तुलना करके हत्थपायपडिच्छिन्नं कण्ण-नास-विगप्पियं । अवि वाससयं नारि, बंभयारी विवज्जए।-दशवकालिक अ.८ गा. ५६
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy