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________________ ( २८ ) सूत्रकृतांग सूत्र के द्वितीय श्रत स्कन्ध में सात अध्ययन हैं। उनमें प्रथम अध्ययन पुण्डरीक है, जो गद्य में है। इसमें एक सरोवर के पुण्डरीक कमल की उपमा देकर बताया गया है कि विभिन्न मत वाले लोग राज्य के अधिपति राजा को प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु स्वयं ही कष्टों में फंस जाते हैं । राजा वहाँ का वहीं रह जाता है । दूसरी ओर सद्धर्म का उपदेश देने वाले भिक्षु के पास राजा अपने आप खिंचा चला जाता है। इस अध्ययन में विभिन्न मतों एवं विभिन्न सम्प्रदायों के भिक्षुओं के आचार का भी वर्णन किया गया है। द्वितीय अध्ययन मिया-स्थान है, जिसमें कर्मबन्ध के त्रयोदश स्थानों का वर्णन किया गया । तृतीय अध्ययन आहार-परिज्ञा है, जिसमें बताया है कि आत्मार्थी भिक्षु को निर्दोष आहार पानी की एषणा किस प्रकार करनी चाहिए । चौथा अध्ययन प्रत्याख्यान है जिसमें त्याग, प्रत्याख्यान, व्रतों एवं नियमों का स्वरूप बताया गया है । पाँचवा आचार श्रु त अध्ययन है, जिसमें त्याज्य वस्तुओं की गणना की गई है तथा लोकमूढ़ मान्यताओं का खण्डन किया गया है। छठा अध्ययन आद्रक है, जिसमें आर्द्रक कुमार की धर्मकथा बहुत सुन्दर ढंग से कही गई है। यह एक दार्शनिक संवाद हैं जो उपनिषदों के संवाद की पद्धति का है। विभिन्न सम्प्रदायों के लोग आर्द्र क कुमार से विभिन्न प्रश्न करते हैं और आर्द्रक उनकी विभिन्न शंकाओं का समाधान करते हैं । सातवां नालन्दा अध्ययन है जिसमें भगवान महावीर के प्रथम गणधर इन्द्रभूति गौतम का नालन्दा में दिया गया उपदेश अंकित है। सूत्रकृतांग सूत्र में जिन मतों का उल्लेख है, उनमें से कुछ का सम्बन्ध आचार से है और कुछ का तत्ववाद अर्थात् दर्शन-शास्त्र से है । इन मतों का वर्णन करते हुए उस पद्धति को अपनाया गया है, जिसमें पूर्व पक्ष का परिचय देकर बाद में उसका खण्डन किया जाता है । इस दृष्टि से सूत्रकृतांग का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान जैन आगमों में माना जाता है। बौद्ध परम्परा के अभिधम्म पिटक की रचना भी इसी शैली पर की गई है। दोनों की तुलनात्मक दृष्टि मननीय है। पञ्च महाभूतवाद : दर्शन शास्त्र का सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रश्न यह रहा कि लोक क्या है ? इसका निर्माण किसने किया? और कैसे हुआ? क्योंकि लोक प्रत्यक्ष है अतः उसकी सृष्टि के सम्बन्ध में जिज्ञासा का उठना सहज ही था । इसके सम्बन्ध में सूत्रकृतांग में एक मत का उल्लेख करते हुए बताया गया है, कि यह लोक पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश रूप भूतों का बना हुआ है। इन्हीं के विशिष्ट संयोग से आत्मा का जन्म होता है और इनके वियोग से विनाश हो जाता है। यह वर्णन प्रथम श्रुतस्कन्ध, प्रथम अध्ययन और प्रथम उद्देशक की ७-८ गाथाओं में किया गया है। मूल में इस वाद का कोई नाम नहीं बताया गया है । नियुक्तिकार भद्रवाहु ने इसे चार्वाक का मत बताया है । इस मत का उल्लेख दूसरे श्र तस्कन्ध में भी है। वहाँ इसे पञ्चमहाभूतिक कहा गया है। तज्जीव-तच्छरीरवाद : इस वाद के अनुसार संसार में जितने शरीर हैं, प्रत्येक में एक आत्मा है। शरीर की सत्ता तक ही जीव की सत्ता है । शरीर का नाश होते ही आत्मा का भी नाश हो जाता है। यहाँ शरीर को ही आत्मा कहा गया है । उसमें बताया गया है कि परलोक गमन करने वाला कोई आत्मा नहीं है । पुण्य और पाप का भी कोई अस्तित्व नहीं है। इस लोक के अतिरिक्त कोई दूसरा लोक भी नहीं है । मूलकार ने इस मत का कोई नाम नहीं बताया। नियुक्तिकार तथा टीकाकार ने इस मत को 'तज्जीव-तच्छरीरवाद' कहा है । सूत्रकृतांग के दूसरे श्रुतस्कन्ध में इस वाद का अधिक विस्तार से वर्णन किया गया है। शरीर से भिन्न आत्मा को मानने वालों का खण्डन करते हुए वादी कहता है-कुछ लोग कहते हैं कि शरीर अलग है और जीव अलग है। वे जीव का आकार, रूप, गन्ध, रस, और स्पर्श आदि कुछ भी
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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