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सूत्रकृतांग-चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिज्ञा २६६. सुतमेतमेवमेगेसि, इत्थीवेदे वि हु सुअक्खायं ।
एवं पिता वदित्ताणं, अदुवा कम्मुणा अवकरेंति ॥ २३ ॥ २७०. अन्न मणेण चितति, अन्न वायाइ कम्मुणा अन्नं ।
तम्हा ण सद्दहे भिक्खू, बहुमायाओ इथिओ गच्चा ।। २४ ॥ २७१. जुवती समणं बूया उ, चित्तलंकारवत्थगाणि परिहेत्ता।
विरता चरिस्स हं लूह, धम्ममाइक्ख णे भयंतारो ॥ २५ ॥ २७२. अदु साविया पवादेण, अहगं साधम्मिणी य समणाणं ।
जतुकुम्भे जहा उवज्जोती, संवासे विदू वि सीएज्जा ॥ २६ ॥ २७३. जतुकुम्भे जोतिमुवगूढे, आसुऽभितत्ते णासमुपयाति ।
एवित्थियाहिं अणगारा, संवासेण णासमुवयंति ॥ २७ ॥ २७४. कुव्वंति पावगं कम्मं, पुट्ठा वेगे एवमाहंसु ।
नाहं करेमि पावं ति, अंकेसाइणो ममेस ति ॥ २८ ॥ २७५. बालस्स मंदयं बितियं, जं च कडं अवजाणई भुज्जो।
दुगुणं करेइ से पावं, पूयणकामए विसण्णेसी ।। २६ ॥ २७६. संलोकणिज्जमणगारं, आयगतं णिमंतणेणाऽऽहंसु ।
वत्थं व ताति ! पातं वा, अन्न पाणगं पडिग्गाहे ॥ ३० ॥ २७७. णीवारमेय बुज्झज्जा, णो इच्छे अगारमागंतु।
बद्ध य विसयपासेहि, मोहमागच्छतो पुणो मंदे ॥ ३१॥ त्ति बेमि ।। २४७. जो पुरुष (इस भावना से दीक्षा ग्रहण करता है कि मैं) “माता-पिता तथा समस्त पूर्व संयोग (पूर्व सम्बन्ध) का त्याग करके, मैथुन (सेवन) से विरत होकर तथा अकेला ज्ञान-दर्शन-चारित्र से युक्त (सहित) रहता हुआ विविक्त (स्त्री, पशु एवं नपुंसक रहित) स्थानों में विचरण करूँगा।"
२४८. उस साधु के निकट आकर हिताहितविवेकरहित स्त्रियाँ छल से, अथवा गूढार्थ वाले पदों
शब्दों, पहेली व काव्य) से उसे (शीलभ्रष्ट करने का प्रयत्न करती हैं ।) वे स्त्रियाँ वह उपाय भी जानती हैं, जिससे कई साधु उनका संग कर लेते हैं।
२४६. वे साधु के पास बहुत अधिक बैठती हैं, बार-बार कामवासना-पोषक सुन्दर वस्त्र पहनती हैं, शरीर के अधोभाग (जांघ आदि) को भो (साधु को कामोत्तेजित करने हेतु) दिखाती हैं, तथा बाहें ऊंची करके कांख (दिखाती हुई साधु के) सामने से जातो हैं।
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