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सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिज्ञा वे माता और अन्य गुरुजनों का पालन करते हैं। उत्तरा='उत्तरोत्तरजाता' यानी एक के बाद एक जन्मे हए। कहीं-कहीं 'उत्तमा' पाठान्तर भी है; अर्थ होता है-सुन्दर श्रेष्ठ महरुल्लावा=मधुरो-मनोज्ञ उल्लापः -आलापो तेषां ते तथाविधाः, जिनकी बोली मधुर-मनोज्ञ है, गंतु-घर जाकर अपने स्वजन-वर्ग को देखकर । अकामगं= अनिच्छन्तं-गृहव्यापारेच्छारहितं घर के कामकाज करने की इच्छा से रहित (अनिच्छुक)। परक्कम स्वेच्छानुसार अवसर प्राप्त किसी काम को करने गकार सम्मत पाठान्तर है-परक्कमंतं अर्थ किया गया है-अपनी रुचि अनुसार पराक्रम करते हुए तुम को । हत्यीवा वि नवग्गहे नये पकड़े हुए हाथी की तरह ।' 'सूतीगोव्व' =प्रसूता गाय की तरह । पाताला व अतारिया=अतल समुद्र की तरह दुस्तर । मालुया=लता । असमाहिणा=असमाधि पैदा करने वाले रुदन-विलापादि कृत्यों से। चूर्णिकार असमाधिता पाठान्तर भी मानते हैं । अर्थ है-असमाधिपन। कोवाजत्थ य कोसंति-असमर्थ साधक इन अनुकूल उपसों के आने पर क्लेश (जन्ममरणादिरूप संसार भ्रमण का दुःख) पाते हैं। चूर्णिकार के अनुसार पाठान्तर है-कीवा जत्थावकीसंति-अल्पसत्व साधक जिस उपसगं के आने पर मोक्षगूण से या धर्म से कृष्ट-दूर हो जाते हैं। एक और चूर्णिसम्मत पाठान्तर है-कीवा जत्थ विसपणे सीकीवा जत्थ विसण्णं एसंतीति विसण्णेसी.... विसण्णा वा आसन्ति विसण्णासी । अर्थात् -जहाँ कायर साधक विषाद को प्राप्त करते हैं, अथवा विषण्ण होकर बैठ जाते हैं। महासवा-महान् कर्मों के आस्रवद्वार हैं । अहिमेअथ का अर्थ है-इसके अनन्तर ये (पूर्वोक्त स्वजन संगरूप उपसर्ग)। 'अहो इमे' इस प्रकार का पाठान्तर भी वृत्तिकार ने सूचित किया है। जिसका अर्थ होता है-आश्चर्य है, ये प्रत्यक्ष निकटवर्ती एवं सर्वजनविदित । अवसप्पंति-अप्रमत्तता-सावधानीपूर्वक उससे दूर हट जाते हैं।' भोग निमत्रण रुप उपसर्ग : विविध रूपों में
१९६. रायाणो रायमच्चा य माहणाऽदुव खत्तिया।
निमंतयंति भोगेहि भिक्खुयं साहुजीविणं ॥ १५॥ १९७. हत्थऽस्स-रह-जाणेहि विहारगमणेहि य ।
भुज भोगे इमे सग्घे महरिसी पूजयामु तं ॥ १६ ।। १९८. वत्यगंधालंकारं इत्थोओ सयणाणि य।
भुजाहिमाई भोगाई आउसो पूजयामु तं ॥ १७ ॥ १९९. जो तुमे नियमो चिण्णो भिक्खुभावम्मि सुव्वता ।
अगारमाबसंतस्स सव्वो संविज्जए तहा ॥ १८ ॥ २००. चिरं दूइज्जपाणस्स दोसो दाणि कुतो तव ।
इच्चेव णं निमंतेति नीवारेण व सूयरं ॥ १६ ॥
७ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ८४ से ८६ तक
(ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टि०) पृ० ३४-३५