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________________ द्वितीय उद्देशक । गाथा १८३ से १६५ २०१ चली जायगी तो उन्मार्गगामिनी एवं स्वच्छन्दाचारिणी बन जायगी। यह बड़ा लोकापवाद होगा। इन सब बातों पर विचार करके अपने स्त्री-पुत्रों की ओर देखकर तुम धर चलो। पांचवां रूप-घर के कामधन्धों से कतरा कर तुमने घर छोड़ा है, परन्तु अब हमने निश्चय कर लिया है कि हम तुम्हें किसी काम के लिए नहीं कहेंगे। तुम्हारे काम में सहायता करेंगे, तुम्हारे जिम्मे के कामों को हम देखेंगे। अतः घर चलो, तुम कोई काम मत करना। छठा रूप-प्रिय पुत्र ! तुम एक बार घर चल कर अपने स्वजन वर्ग से मिलकर, उन्हें देखकर फिर लौट आना। घर चलने मात्र से तुम कोई असाधु नहीं हो जाओगे। अगर तुम्हें घर । हो तो पुनः यहाँ आ जाना। यदि तुम्हारी इच्छा घर का काम-काज करने की न हो तो तुम्हें अपनी रुचि के अनुसार कार्य करने से कौन रोकता है ? अथवा तुम्हारो इच्छा काम-भोगों से निवृत्त होकर बुढ़ापे में पुनः संयमानुष्ठान करने को हो तो कौन मना करता है ? संयमाचरण योग्य अवसर आने पर तुम्हें कोई रोकेगा नहीं। अतः हमारा साग्रह अनुरोध मानकर एकबार घर चलो। ____ सातवाँ रूप-बेटा ! तुम पर जो भारी कर्ज था, उसे हम लोगों ने परस्पर बराबर हिस्से में बांट लिया है, एवं चुका दिया है। अथवा ऋण चुकाने के भय से तुमने घरबार छोड़ा था, उसे हम लोगों ने आसानी से चुकाने की व्यवस्था कर ली है। रहा व्यापार एवं घर खर्व का व्यवहार तो उसे चलाने के लिए हम तुम्हें सोना-चाँदी आदि द्रव्य देंगे। जिस निर्धनता से घबरा कर तुमने घर छोड़ा था। अब उस भय को मन से निकाल दो, और घर चलो। अब घर में रहने में तुम्हारे लिए कोई विघ्न-बाधा नहीं रही। स्वजनों द्वारा इन और ऐसे ही मोहोत्पादक विभिन्न आकर्षक तरीकों से कच्चे साधक को पूनः गृहस्थजीवन में खींच लिया जाता है। संयमी जीवन में इस प्रकार के प्रलोभन अनुकूल कच्चा साधक स्वजनों के मोह सम्बन्ध में पड़कर संयम से फिसल जाता है। ये समस्त सूत्रगाथाएँ साधु को इस प्रकार के अनुकूल उपसर्गों के समय सावधान रहने तथा संयम छोड़कर पुनः गृहवास में जाने का जरा भी विचार न करने की प्ररणा देती हैं। कठिन शब्दों की ब्याख्या-दिस्स=देखकर । अप्पेगे= (अपि सम्भावना अर्थ में होने से) सम्भव है, कई तथाकथित । णायओ=ज्ञातिजन । परिवारिया=घेरकर । कस्स चयासि ? किसलिए, किस कारण से हमें तू छोड़ रहा है। 'चयासि' के बदले पाठान्तर हैजहासि । अर्थ समान है। खुड्डिया=छोटी बच्ची है। सगा=अपने, सगे। 'सवा' पाठान्तर भी है, जिसके संस्कृत में दो रूप होते हैं-स्वकाः; श्रवाः । स्वका का अर्थ अपने निजी है, और श्रवा का अर्थ होता हैं-तुम्हारे वचन या आज्ञा आदि को सुनने वाले। कम्मंसहा=कर्मों (कामों) में सहायक । चूर्णिकार के अनुसार इदाणि वयं कम्मसमत्या-कम्मसहा कम्मसहायकत्व प्रतिभवतः । अर्थात्-अब हम काम करने में समर्थ हैं, आपके कामों में सहायता करने में भी। लोगो भविस्सइ-तुम्हारा इहलोक-परलोक बनेगा-सुधरेगा। जे पोसे पिउमातरं-जो पुत्र पिता-माता का पालनपोषण करता है । इसके बदले पाठान्तर है-'जे पालंति य मातरं । अर्थ होता है जो पुत्र होते हैं, ६ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ८४ से ८६ तक का सार (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० ४२४ से ४३४ तक के आधार पर
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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