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सूत्रकृतोग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिज्ञा १८०. उस अनार्य देश की सीमा पर विचरण करने वाले साधु को डंडों से, मुक्कों से अथवा बिजोरा आदि फल से (या फलक पटिये से, अथवा भाले आदि से) पीटा जाता है, तब वह नवदीक्षित अज्ञ साधक अपने बन्धु-बन्धवों को उसी प्रकार स्मरण करता है, जिस प्रकार रुष्ट होकर घर से भागने वाली स्त्री अपने स्वजनवर्ग को (स्मरण करती है।)
विवेचन-वध-बन्ध परीवह रूप उपसर्ग-प्रस्तुत सूत्रगाथात्रय में वध और बन्ध परीषह के रूप में उपसर्ग साधक को किस प्रकार पीड़ित करते हैं ? उसका विशद निरूपण है।
पीड़ा देने वाले कौन ? कई सुब्रती साधु सहज भाव से अनार्य देश के पारिपाश्विक सीमावर्ती प्रदेश में विचरण करते हैं, उस समय उन्हें कई अनार्य पीड़ा देते हैं। अनार्यों के लिए यहाँ तीन विशेषण प्रयुक्त किये गए हैं-(१) आतवण्ड समायारा, (२) मिच्छासंठिय भावणा और (३) हरिसप्पदोसमावण्णा : अर्थात् जो अनार्य अपनी आत्मा को ही कर्मबन्ध से दण्डित करने वाले कल्याण भ्रष्ट आचारों से युक्त होते हैं, जिनकी बुद्धि मिथ्यात्व दोष से जकड़ी हुई है, तथा जो राग और द्वष से कलुषित हैं।
किस पकार पीड़ित करते हैं ?-वे अनार्य लोग सीमाचारी सुविहित साधु को यह खुफिया हैं, या यह चोर है, इस प्रकार के सन्देह में पकड़ करके बांध देते हैं, कषायवश अपशब्द भी कहते हैं, फिर उसे डंडों, मुक्कों और लाठियों से पीटते भी हैं।
उस समय उपसर्ग से अमभ्यस्त साधक को मनोदशा-उस समय अनाड़ी लोगों द्वारा किये गए प्रहार से घबराकर संयम से भाग छूटने की मनोवृत्तिवाला कच्चा और अज्ञ नवदीक्षित साधक अपने मातापिता या स्वजन वर्ग को याद करके उसी प्रकार पछताता रहता है, जिस प्रकार कोई स्त्री घर से रूठकर भाग जाती है, किन्तु कामी लोगों द्वारा पीछा करके बलात् पकड़ ली जाती है, उस समय वह अपने स्वजनों को याद करके पश्चात्ताप करती है।
शास्त्रकार ने ऐसे उपसर्गों के समय साधक को सावधान करने के लिए ऐसी सम्भावनाएँ व्यक्त की है।
कठिन शब्दों की व्याख्या-पलियंतसि=अनार्य देश के पर्यन्त सीमाप्रदेश में विचरण करते हुए । चारिचारिक मुप्तचर, चूर्णिकार इसका अर्थ करते हैं-चारिकोऽयं चारयतीति चारकः येषां परस्पर विरोधस्ते चारिक मित्येन संवदन्ते । अर्थात् -यह चारिक है। जिन राज्यों का परस्पर विरोध होता है, वे उसे चारिकविरोधी-गुप्तचर समझते हैं । कसायवयणेहि-क्रोधादि कषाय युक्त वचनों से पीड़ित करते हैं। चूर्णिकार 'कसायवसह-पाठान्तर मानकर अर्थ करते हैं-काषायरंग के वस्त्रों से सज्जित करके कई कार्पटिक पाषण्डिक लोग उस साधु की भर्त्सना करते हैं, रोकते है या नचाते हैं। अथवा कषाय के वश होककर के पीड़ित करते हैं । संवीते=पीटे जाने पर या प्रहत-घायल किये जाने पर ।
१८ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक ८२ के आधार पर
(ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० ४१७ से ४१६ तक का सारांश १६ (क) सूत्रकृतांम शीलांकवृत्ति पृ० ८२
(ख) सूयगडंग चूर्णि (मू० पा० टिप्पण) पृ० ३३