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________________ ( २१ ) सन्तान मानता है । इसके विपरीत जैन दर्शन आत्मा को नित्य, अजर और अमर स्वीकार करता है। ज्ञान आत्मा का विशिष्ट गुण है । जैन दर्शन मानता है, कि आत्मा स्वभावतः अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त शक्ति से युक्त है । इस दृष्टि से प्रत्येक भारतीय-दर्शन आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है और उसकी व्याख्या अपने ढंग से करता है । भारतीय दर्शनों में कर्मवाद : कर्मवाद भारतीय दर्शन का एक विशिष्ट सिद्धान्त माना जाता है। भारत के प्रत्येक दर्शन की शाखा ने इस कर्मवाद के सिद्धान्त पर भी गम्भीर विचार किया है। जीवन में जो सुख और दुःख की अनुभूति होती है, उसका कोई आधार अवश्य होना चाहिए। इसका एक मात्र आधार कर्मवाद ही हो सकता है। इस संसार में जो विचित्रता और जो विविधता का दर्शन होता है, उसका आधार प्रत्येक व्यक्ति का अपना कर्म ही होता है । कर्मवाद के सम्बन्ध में जितना गम्भीर और विस्तृत विवेचन जैन परम्परा के ग्रन्थों में उपलब्ध है उतना अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। एक चार्वाक दर्शन को छोड़ कर शेष सभी भारतीय दर्शन कर्मवाद के नियम में आस्था एवं विश्वास रखते हैं। कर्म का नियम नैतिकता के क्षेत्र में काम करने वाला कारण नियम ही है। इसका अर्थ यह है, कि शुभ कर्म का फल अनिवार्यतः सुख होता है, और अशुभ कर्म का फल अनिवार्यतः अशुभ होता है। अच्छा काम आत्मा में पुण्य उत्पन्न करता है जो कि सुखभोग का कारण बनता है । बुरा काम आत्मा में पाप उत्पन्न करता है, जो कि दुःखभोग का कारण बनता है । ख और दुःख शुभ और अशुभ कर्मों के अनिवार्यतः फल हैं। इस नैतिक नियम की पकड़ से कोई भी छूट नहीं सकता। शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्म सूक्ष्म संस्कार छोड़ जाते हैं, जो निश्चय ही भावी सुख-दुःख के कारण बनते हैं वे अवश्य ही समय आने पर अपने फल को उत्पन्न करते हैं । इन फलों का भोग निश्चय ही इस जन्म में अथवा भविष्य में किया जाना है । कर्म के नियम के कारण ही आत्मा को इस संसार में जन्म और मरण करना पड़ता है। जन्म और मरण का कारण कर्म ही है । कर्म के नियम का बीज-रूप सर्वप्रथम ऋग्वेद की ऋत धारा में उपलब्ध होता है। ऋत का अर्थ है जगत की व्यवस्था एवं नियम प्रकृति की प्रत्येक घटना अपने नियम के अनुसार ही होती है। प्रकृति के ये नियम ही ऋत हैं। आगे चलकर ऋत की धारणा में मनुष्य के नैतिक नियमों की व्यवस्था का भी समावेश हो गया था । उपनिषदों में भी इस प्रकार के विचार हमें बीज रूप में अथवा सूक्ष्म रूप में प्राप्त होते हैं। कुछ उपनिषदों में तो कर्म के नियम की भौतिक नियम के रूप में स्पष्ट धारणा की गई है। मनुष्य जैसा बोता है वैसा ही काटता है । अच्छे बुरे कर्मों का फल अच्छे बुरे रूप में ही मिलता है। शुभ कर्मों से अच्छा चरित्र बनता है और अशुभ कर्मों से बुरा। फिर अच्छे चरित्र से अच्छा जन्म मिलता है, और बुरे चरित्र से बुरा । उपनिषदों में कहा गया है, कि मनुष्य शुभ कर्म करने से धार्मिक बनता है और अशुभ कर्म करने से पापात्मा बनता है । संसार जन्म और मृत्यु का एक अनन्त चक्र है । मनुष्य अच्छे कर्म करके अच्छा जन्म पा सकता है, और अन्त में भेद - विज्ञान के द्वारा संसार से मुक्त भी हो सकता है । जैन आगम और बौद्ध-पिटकों में भी कर्मवाद के शाश्वत नियमों को स्वीकार किया गया है। जैन परम्परा में भगवान् ऋषभदेव के समय से ही कर्मवाद की मान्यता रही है । बौद्ध दर्शन में भी कर्मवाद की मान्यता स्पष्ट रूप में नजर आती है | अतः बौद्ध-दर्शन भी कर्मवादी दर्शन रहा है । न्याय, वैशेषिक, सांख्य और योग तथा मीमांसा और वेदान्तदर्शन में कर्म के नियम के सम्बन्ध में आस्था व्यक्त की गई है । इन दर्शनों का विश्वास है कि अच्छे अथवा बुरे काम अदृष्ट को उत्पन्न करते हैं, जिसका विपाक होने में कुछ समय लगता है । उसके बाद उस व्यक्ति को सुख अथबा दुःख भोगना पड़ता है । कर्म का फल कुछ तो इस जीवन में मिलता है और कुछ अगले जीवन में । लेकिन कर्म के फल से कभी बचा नहीं जा सकता । भौतिक व्यवस्था पर कारण नियम का शासन है और नैतिक व्यवस्था पर कर्म के नियम का
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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