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________________ तृतीय उद्देशक : गाथा १५८ से १६० १७५ ___ "हिंडंति भयाउला सढा जाति जरामरणेहऽभिद्द ता" इससे दो तथ्य प्रतिफलित होते हैं-(१) यहाँ वे भयाकुल होकर ही घूमते हैं, (२) अथवा वे जन्म, जरा; मरण आदि से यहाँ या आगे पीड़ित रहते हैं। प्रायः देखा जाता है कि चोरी, डकैती, हत्या, लूटपाट, बलात्कार आदि भयंकर पाप करने वाले दुष्ट (शठ) लोग प्रतिक्षण आशंकित, भयभीत, दण्डभय से व्याकुल और समाज में बेइज्जती हो जाने की आशंका से चिन्तित रहते हैं । कई लोग तो एकान्त स्थानों में छिपकर या सरकार की नजर बचाकर अपनी जिन्दगी बिताते हैं। उनका पाप उन्हें हरदम कचोटता रहता है। कोई उसकी हत्या न कर दे, बदला न ले ले, बुरी तरह मारपीट कर अधमरा न कर दे, इस प्रकार उन दुष्कर्मियों का वह जीवन मुट्ठी में रहता है। चिन्ता ही चिन्ता के कारण उनका मानसिक सन्तुलन बिगड़ जाता है। विक्षिप्त, अर्धविक्षिप्त-सा हो जाते हैं । कभी हृदय-रोग का हमला, रक्तचाप, क्षय आदि रोगों के कारण जिन्दगी बर्बाद हो जाती है, असमय में ही बुढ़ापा आ जाता है। इसलिए बहुत-से लोगों को तो इसी जन्म में दुष्कर्म का फल मिल जाता है । मृत्यु के समय भी कई अत्यन्त भयभीत रहते हैं। अगर किसी को इस जन्म में अपने दुष्कर्मों का फल नहीं मिलता तो अगले जन्मों में अवश्य ही मिल मृत्यु के चक्के में पिसते रहते हैं। निःसन्देह कहा जा सकता है कि संसार में कोई किसी का त्राता एवं शरणदाता नहीं हो सकता, सभी को अपने-अपने कर्मों से तथा तदनुसार दुःखों से निपटना होता है। उत्तराध्ययन आदि सूत्रों में भी इसी तथ्य का उद्घाटन किया गया है।३७ कठिन शब्दों की व्याख्या- 'अव्वत्तण दुहेण पाणिणो' का अर्थ वृत्तिकार के अनुसार है-अव्यक्तअपरिस्फुट शिरोवेदना आदि अलक्षित स्वभावरूप दुःख से प्राणी दुःखित हैं। चूर्णिकार 'अम्वत्तण' के बदले अवियत्तण पाठ मानकर इसके संस्कृत में दो रूप बनाकर अर्थ करते हैं-'अवियत्तेण कृती छेदने, न विकृतं अच्छिन्नमित्यर्थस्तेन, अथवा अवियत्तेन अधिगच्छन्तेनेत्यर्थः ।” कृती धातु छेदने अर्थ में है। विकृत नहीं, अर्थात् अविकृत-अविच्छिन्न, उस (दुःख) से, अथवा अवियत्तन का अर्थ-जानते हुए या स्मरण करते हुए' भी होता है। पहले अर्थ के अनुसार-अविच्छिन्न (लगातार) दुःख से प्राणी दुःखी होते हैं, दूसरे अर्थ के अनुसार-ज्ञात और संस्मृत दुःख से प्राणी दुःखी होते है, 'जातिजरामरणे हऽभिवृदुता' के बदले चूर्णिकार ने 'वाधिजरामरणेहिऽभिदुता' पाठान्तर माना है, जिसका अर्थ होता है-यहाँ व्याधि, जरा एवं मरण से पीड़ित । 'विदुमंता' का अर्थ वृत्तिकार के अनुसार है-विद्वान्-विवेकी-संसार स्वभाव का यथार्थवेत्ता। चूर्णिकार 'विदु मंता' इन दोनों पदों को 'विदु मत्वा के रूप में पृथक्-पृथक् करके अर्थ करते हैं-विद्वान इस प्रकार जान-मानकर (पूर्वोक्त ज्ञाति आदि वस्तुओं को शरण नहीं मानते ।)३८ ३७ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पृ० ७५ के आधार पर (ख) देखिए प्रश्नव्याकरण सूत्र में प्रथम आस्रव द्वार और ततीय आस्रव द्वार का वर्णन । (ग) माणुसत्ते असारंमि वाहीरोगाण आलए। जरा-मरणघत्यंमि खणंपि न रमामहं ॥ -उत्तराध्ययन सूत्र अ० १६/१४ ३८ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पृ० ७५ (ख) सूयगडंग चूणि (मूलपाठ टिप्पण) पृ० २६
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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