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________________ द्वितीय उद्देशक । गाथा १३० से १३२ १४७ १३१. जीवन संस्कार करने (जोड़ने) योग्य नहीं है ऐसा (सर्वज्ञों ने) कहा है, तथापि अज्ञानीजन (पाप करने में) धृष्टता करता है । वह अज्ञजन (अपने बुरे कार्यों से उपाजित पापों के कारण) पापी माना जाता है, यह जानकर (यथावस्थित पदार्थवेत्ता) मुनि मद नहीं करता। १३२. बहुमायिक एवं मोह से प्रावृत (आच्छादित) ये प्रजाएँ (विभिन्न जाति के प्राणी) अपने स्वच्छन्दाचार के कारण नरक आदि गतियों में जाकर लीन (प्रविष्ट) होती हैं, किन्तु अहिंसा महाव्रती महामाहन (कपट रहित कर्म के कारण मोक्ष अथवा संयम में) प्रलीन होता है। और शीत (अनुकूल) और उष्ण (प्रतिकूल) परीषहों को मन-वचन-काया से सहता है। विवेचन-सामायिक-साधक के मौलिक आचारसूत्र-प्रस्तुत तीन गाथाओं में शास्त्रकार ने सामायिक साधक के कुछ मौलिक आचारसूत्र बताये हैं-(१) वह ठण्डे (कच्चे-अप्रासुक) जल से घृणा (अरुचि) करता है, (२) किसी भी प्रकार का निदान (सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति का संकल्प) नहीं करता (३) कर्मबन्धन के कारणों से दूर हट जाता है, (४) गृहस्थ के भाजन (बर्तन) में भोजन नहीं करता, (५) जीवन को क्षणभंगुर (असंस्कृत) जानकर मद (घमण्ड) नहीं करता, (६) स्वच्छन्दाचार, मायाचार मोह प्रवृत्ति के दुष्परिणाम जानकर इनसे रहित होकर संयमसाधना में लीन रहता है, (७) अनुकूलप्रतिकूल परीषहों को मन-वचन-काया से समभावपूर्वक सहता है ।२१ - सीओदगपडिदुगुञ्छिणो=शीतोदक-ठण्डे-अप्रासुक-सचित्त पानी के सेवन के प्रति जुगुप्सा-घृणा= अरुचि करने वाला। कैसा भी विकट प्रसंग हो, साधु जरा-सा भी अप्रासुक जल-सेवन करना पसन्द नहीं करता क्योंकि जल-जीवों को विराधना को वह आत्म-विराधना समझता है । अपडिण्णस्स=प्रतिज्ञा-किसी भी अभीष्ट मनोज्ञ इहलौकिक-पारलौकिक विषय को प्राप्त करने का निदान रूप संकल्प (नियाणा) न करने वाला साधु । 'लवावसविकणो'- शब्द का अर्थ है-लेशमात्र कर्मबन्धन से भी दूर रहने वाला। वृत्तिकार सम्मत पाठान्तर है-लवावसप्पिणो । व्याख्या की है-लवं कर्म तस्मात् अवसर्पिणः यदनुष्ठानं कर्मबन्धोपादानरूपं तत्परिहारिण इत्यर्थः । अर्थात् - लव कहते हैं कर्म को, उससे अलग हट जाने वाला, अर्थात् जो कार्य कर्मबन्धन का कारण है, उसे जानते ही तुरन्त छोड़ देने वाला । वह लेशमात्र भी कर्मबन्धन के कारण के पास नहीं फटकता ।२२ 'गहिमत्त ऽसणं न भुजती'--गृहस्थ के बर्तनों में भोजन नहीं करता। दशवैकालिक सूत्र में साधु को गृहस्थ के बर्तन में भोजन करने का निषेध निम्नोक्त कारणों से किया है- (१) पश्चात्कर्म और पुरः कर्म की सम्भावना है, (२) बर्तनों को गृहस्थ द्वारा सचित्त जल से धोने और उस धोए हुए पानी को २१ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ६६ का सारांश (ख) सूत्रकृतांग अमरसुख बोधिनी व्याख्या ३५५-३५७ के आधार पर २२ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ६६ (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पु० ३५५ के आधार पर (ग) सूत्रकृतांग चूर्णि (मू० पा० टि०) पृ० २३
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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