________________
सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय १२६. जो साधु अधिकरण (कलह या विवाद) करता है, और हठपूर्वक या मुंहफट होकर भयंकर कठोर वचन बोलता है, उसका बहुत-सा अर्थ (संयमधन या मोक्षरूप प्रयोजन) नष्ट हो जाता है । इसलिए पण्डित (सद्-असद् विवेकी) मुनि अधिकरण न करे।
विवेचन-अधिकरण निषेध-प्रस्तुत गाथा में साधु के लिए अधिकरण सर्वथा वर्जनीय बताया है। इसके दो लक्षण बताये गये हैं-अधिकरणशील साधु रौद्रध्यान इर्ष्या, रोष, द्वेष, छिद्रान्वेषण, कलह आदि पाप-दोष बटोरता है, (२) वह हठपूर्वक प्रकट रूप में भयंकर कठोर वचन बोलता है।
परिणाम-अधिकरण करने वाले साधु का बहुत-सा संयमधन लुट जाता है, अथवा उसका मोक्षरूप प्रयोजन सर्वथा नष्ट हो जाता है । कहा भी है
"ज अज्जियं समीखल्लएहिं तवनियमबंभमाइएहि ।
माहु तयं कलहंता छड्डे अहसागपत्तेहिं ॥ -चिरकाल तक कठोर तप, नियम एवं ब्रह्मचर्य आदि बड़ी मुश्किल से जो सत्फल उपाजित किया है, उसे तुच्छ बातों के लिए कलह करके नष्ट मत करो, ऐसा पण्डितजन उपदेश देते हैं।
अधिकरणकर का अर्थ-बात को अधिकाधिक बढ़ा-चढ़ाकर करना, उसे बतंगड़ बना देना, और विवाद खड़ा करके कलह करना अधिकरण है। बात-बात में जिसका अधिकरण करने का स्वभाव हो जाता है, उसे 'अधिकरण कर' कहते हैं । २०
सामायिक-साधक का आचार
१३० सीओदगपडिदुगुञ्छिणो, अपडिण्णस्स लवावसक्किणो।
सामाइयमाहु तस्स जं, जो गिहिमत्तेऽसणं न भुञ्जती ॥२०॥ _१३१ न य संखयमाहु जीवियं, तह वि य बालजणे पगब्भती।
बाले पावेहि मिज्जती, इति संखाय मुणी ण मज्जती ॥ २१ ॥ १३२ छंदेण पलेतिमा पया, बहुमाया मोहेण पाउडा ।
वियडेण पलेति माहणे, सीउण्हं वयसाऽहियासए ॥ २२ ॥ १३० जो साधु ठण्डे (कच्चे अप्रासुक) पानी से घृणा (अरुचि) करता है, तथा मन में किसी प्रकार की प्रतिज्ञा (सांसारिक कामना पूर्ति का संकल्प-निदान) नहीं करता, कर्म (बन्धन) से दूर रहता है, तथा जो गृहस्थ के भाजन (बर्तन) में भोजन नहीं करता, उस साधु के समभाव को सर्वज्ञों ने सामायिक (समतायोग) कहा है।
२० (क) सूत्रकृतांग समयार्थबोधिनी टीका, भाग १, पृ० ५८५
(ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पु० ३५४ (ग) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पृ० ६६