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________________ - ११८ सूत्रकृतांग- द्वितीय अध्ययन - वैतालीय कैसे संसार सागर को पार कर सकते हैं ? सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय ही तो मोक्षपथ है, जिसका उन्हें सम्यग्ज्ञान - बोध नहीं है । निष्कर्ष यह है कि मायाचार युक्त अनुष्ठानों में अधिकाधिक आसक्ति अथवा मोक्ष का भाषण मात्र करने वाले कोई भी साधक प्रव्रजित या धार्मिक होकर कर्मक्षय करने के बदले घोर कर्मबन्धन कर लेते हैं, जो कर्मोदय के समय उन्हें अत्यन्त पीड़ा देते हैं । कदाचित् हठपूर्वक अज्ञानतप, कठोर क्रियाकाण्ड या अहिंसादि के आचरण के कारण उन्हें स्वर्गादि सुख या इहलौकिक विषय-सुख मिल भी जाएँ, तो भी वे सातावेदनीय कर्मफल भोग के समय अतीव गृद्ध होकर धर्म मार्ग से विमुख हो जायेंगे । फलतः वे सातावेदनीय कर्म भी उनके लिए भावी पोड़ा के कारण बन जायेंगे । णाहिसि आरं कतो परं - यह वाक्य शिष्यों को पूर्वोक्त दोनों कोटि के अन्यतीर्थी साधकों से यदि तुम मोक्ष और लोक से अनकैसे संसार और मोक्ष को जान सावधान रहने के लिए प्रयुक्त है । इसका आशय यह है कि शिष्यों ! भिज्ञ कोरे भाषणभट्टों का आश्रय लेकर उनके पक्ष को अपनाओगे तो सकोगे ? 8 कठिन शब्दों की व्याख्या - अभिणूमकडेहि मुच्छिए = अभिमुख रूप से ( चलाकर ) 'णूम' यानि मायाचार कृत असदनुष्ठानों में मूच्छित – गृद्ध । कम्मोह किच्चति = वे (पूर्वोक्त साधक) कर्मों से छेदे जाते हैंपीड़ित किये जाते हैं । विवेगं = विवेक के दो अर्थ हैं - परित्याग और परिज्ञान । यहाँ कुछ अनुरूप प्रासंगिक शब्दों का अध्याहार करके इसकी व्याख्या की गयी है - परिग्रह का त्याग करके " या संसार की अनित्यता जानकर । अवितिष्णे = संसार सागर को पार नहीं कर पाते । ध्रुव = शाश्वत होने से ध्रुव यहाँ मोक्ष अर्थ में । अतः ध्रुव का अर्थ है मोक्ष या उसका उपायरूप संयम । १२ नाहिस आरं कतो परं = वृत्तिकार के अनुसार उन अन्यतोर्थिकों के पूर्वोक्त मार्ग का आश्रय करके आरं - इस लोक को तथा परं - परलोक को कैसे जान सकेगा ? अथवा आरं यानी गृहस्थ धर्म और परं (पारं ) अर्थात् प्रब्रज्या के पर्याय को अथवा आरं यानी संसार को और परं यानी मोक्ष को .... १३ चूर्णिकार इसके बदले 'ण हिसि आरं परं वा' पाठान्तर मानकर व्याख्या करते हैं- 'णणेहि सित्तिन नयिष्यसि मोक्षम् आत्मानं परं वा । तत्त्रात्मा आरं परं पर एव ।" अर्थात् उन अन्यतैथिकों के मत का • आश्रय लेने पर आरं यानी आत्मा स्वयं और परं यानी पर-दूसरे को मोक्ष नहीं ले जा सकोगे । वेहासे = अन्तराल (मध्य) में ही, इतो भ्रष्टस्ततो भ्रष्टः होकर मझधार में ही । & सुत्रकृतांग शीलांकवृत्ति, पृ० ५६ के आधार पर १० ११ १२ १३ आभिमुख्येन णूमंति कर्ममाया वा तत्कृतं रसदनुष्ठानः मूच्छिता गृद्धाः । विवेकं परित्यागं परिग्रहस्य, परिज्ञानं वा संसारस्य '' । ध्रुवो मोक्षस्तं, तदुपायं वा संयमं .... । कथं ज्ञास्यस्यारं इहभवं कुतो वा परं परलोकं; यदि वा आरमिति गृहस्थत्वं, परमिति प्रब्रज्यापर्यायम्, अथवा आरमिति संसारं, परमिति मोक्षम्।" सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पृ० ५६ के अनुसार
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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