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प्रथम रहेगक । गापा ६५ से ६६ में। संपवेहिय=और माता-पिता, स्त्री पुत्र आदि सजीव एवं धन, धाम, जमीन-जायदाद आदि निर्जीव परिचित पदार्थों में। कम्मसहा-वृत्तिकार के अनुसार-कर्मविपाक (कर्मफल) को सहते भोगते हुए। चूर्णिकार-'कम्मसहे' पाठान्तर मानकर व्याख्या करते हैं-कामेभ्यः संस्तवेभ्यश्च कम्मसहित्ति-कर्मभिः सह त्रुट्यतीति ।' कर्मों के साथ ही आयु कर्मों के क्षय होने के साथ ही उन काम-भोगों एवं परिचित पदार्थों से सम्बन्ध टूट जाता है । अर्थात्-तुट्टती जीवन रहित हो जाते हैं। ठाणा ते वि चयं ति दुक्खियाये सभी अपने स्थानों को दुःखित होकर छोड़ते हैं। कर्म-विपाक-दर्शन
६५ जे यावि बहुस्सुए सिया, धम्मिए माहणे भिक्खुए सिया।
___ अभिनूमकडेहि मुच्छिए, तिव्वं से कम्मेहि किच्चती ॥ ७॥ ९६ अह पास विवेगमुट्ठिए, अवितिण्णे इह भासती धुवं ।
___णाहिसि आरं कतो परं, बेहासे कम्मेहि किच्चती ॥८॥
१५. यदि कोई बहुश्रुत-अनेक शास्त्र पारंगत हो, चाहे धार्मिक-धर्मक्रियाशील हो, ब्राह्मण (माहन) हो या भिक्षु (भिक्षाजीवी) हो, यदि वह मायामय-प्रच्छन्न दाम्भिक कृत्यों में आसक्त (मूच्छित) हैं तो वह कर्मों द्वारा अत्यन्त तीव्रता से पीड़ित किया जाता है।
६६. अब तुम देखो कि जो (अन्यतीर्थी साधक) (परिग्रह का) त्याग अथवा (संसार की अनित्यता का) विवेक (ज्ञान) करके प्रव्रज्या ग्रहण करने को उद्यत होता है, परन्तु वह संसार-सागर से पार नहीं हो वह यहाँ या धार्मिक जगत में ध्रुव-मोक्ष के सम्बन्ध में भाषण मात्र करता है। (हे शिष्य !) तुम (भी उन मोक्षवादी अन्यतीथियों का आश्रय लेकर) इस लोक तथा परलोक को कैसे जान सकते हो ? वे (अन्यतीर्थी उभय भ्रष्ट होकर) मध्य में ही कर्मों के द्वारा पीड़ित किये जाते हैं।
विवेचन-दाम्भिक एवं भाषणशूर साधकः कर्मों से पीड़ित-प्रस्तुत गाथा द्वय में उन साधकों से सावधान रहने का संकेत किया गया है, जो मायायुक्त कृत्यों में आसक्त हैं. अथवा जो मोक्ष के विषय में केवल भाषण करते हैं, क्योंकि ये दोनों राग-द्वष (माया-मान-कषाय) के वश होकर ऐसा करते हैं, और रागद्वेष कर्मबन्ध के बीज है, अतः वे नाना कर्मबन्ध करके कर्मोदय के समय दुःखित-पीड़ित होते हैं। इसलिए दोनों गाथाओं के अन्त में कहा गया है" "कम्मेहि किच्चति ।
प्रथम प्रकार के अन्यतीर्थी साधक (बहुश्रुत, धार्मिक, ब्राह्मण या भिश्रु) अथवा अन्य साधक गृहत्यागी एवं प्रवजित होते हुए भी सस्ते, सुलभ मोक्ष पथ का सब्जबाग दिखाते हैं, किन्तु वे स्वयं मोक्षपथ से काफी दूर हैं, मोक्ष तो क्या, लोक-परलोक का भी पुण्य-पाप आदि का भी उन्हें यथार्थ ज्ञान नहीं है, न ही अन्तर में मोक्ष मार्ग पर श्रद्धा है, और न रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग पर चलते हैं, तब भला वे
७ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ५४-५५
(ख) सूत्रकृतांग चूणि (मूल पाठ टिप्पण) पृष्ठ १७