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________________ सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-बेतालीय. माता-पिता आदि का मोह दुर्गति से नहीं बचा पाता–कई लोग यह सोच लेते हैं कि माता-पिता के कारण हम तर जायेंगे। इस भ्रान्ति का निराकरण करते हुये ततीय गाथा (६१) में कहा गया है'मायाहि पियाहिं लुप्पई।' एआई भयाई पेहिया ........""सुव्वए-इस पंक्ति का आशय यह है कि माता-पिता आदि स्वजनों के मोह से विवेक विकल होकर उनके निमित्त से नाना पापकर्म करने से दुर्गतिगमनादि जो खतरे पैदा होते हैं, उन्हें जान-देखकर (कम-से-कम) व्रतधारी-श्रावक बनकर उक्त निरर्थक आरम्भादि सावद्य (पाप) कार्यों से रुके-बचे। यहां माता-पिता आदि की गृहस्थ श्रावक-धर्मोचित सेवा आज्ञापालन आदि कर्तव्य-पालन का निषेध नहीं किया है, किन्तु उनके प्रति मोहान्ध होकर श्रावक धर्म विरुद्ध अन्ध परम्परागत हिंसाजनक कुप्रथाओं का पालन करने तथा पशुबलि, मदिरापानादि दुर्व्यसन, हिंसा, झूठ, चोरी, लूटपाट, डकैती, गिरहकटो आदि भयंकर पापकर्म से बचने की प्रेरणा दी गई है। स्वकृत कर्मों का फलभोग स्वयं को ही करना होगा-पूर्वगाथा के सन्दर्भ में "माता-पिता आदि पारिवारिकजनों के लिए किये गये पापकर्म का फल स्वयं (पुत्र) को नहीं भोगना पड़ेगा", इस भ्रान्ति के शिकार व्यक्तियों को लक्ष्य में रखकर चतुर्थ गाथा (सू० ६२) में कहा गया है-“जमिणं जगती "मुच्चे अपटठवं :" इसका आशय यह है कि जगत में समस्त प्राणियों के कर्म पथक-पथक हैं, उन स्वकृत कर्मों के फलस्वरूप व्यक्ति स्वयं ही यातना स्थानों में (फल भोगने के लिए) जाता है । कर्मों का फल भोगे विना छुटकारा नहीं हो सकता। इस गाथा में तीन रहस्यार्थ छिपे हैं-(१) पुत्रादि के बदले में माता-पिता आदि उन पुत्रादि-कृतकर्मों का फल नहीं भोगेंगे, (२) सबके कर्म सम्मिलित नहीं है कि एक के बदले दूसरा उस कर्म का फल भोग ले, इसलिए व्यक्ति को स्वयं ही स्वकृत कर्मफल भोगना पड़ेगा। (३) स्वकृतं कर्मफल से छुटकारा न तो माता-पिता आदि स्वजन दिला सकेगे, न देवता, ईश्वर या कोई विशिष्ट शक्तिशाली व्यक्ति ही दिला सकेंगे, स्वकृत कर्म से छुटकारा व्यक्ति स्वयं ही कर्मोदय के समय समभाव से भोगकर पा सकेगा। अथवा अहिंसा, संयम (महाव्रत ग्रहण) एवं विशिष्ट तपस्या से उन कर्मों की निर्जरा किए बिना उन (कर्मों) से छुटकारा नहीं हो सकेगा। कठिन शब्दों की व्याख्या-पेच्च परलोक में जाने पर । 'यो हूवणमंति रातिओ=निःसन्देह रात्रियां (व्यतीत समय) वापस नहीं लौटती, व्हरा=छोटे बच्चे। चयंतिजीवन या प्राणों को छोड़ देते हैं । सेणे= श्येनबाज । वट्टयं वर्तक=बतक या बटेर पक्षी । हरे=मार डालता है। माताहि पिताहिं लुप्पति, णो सुलमा सुगई वि पेच्चओ कोई व्यक्ति माताओं (माता, दादी, नानी, चाची, ताई, मौसी, मामी आदि) तथा पिताओं (पिता, दादा, ताऊ, चाचा, नाना, बाबा, मौसा, मामा आदि) के मोह में पड़कर धर्म आचरण से विरत हो जाता है, उसे उन्हीं के द्वारा संसार भ्रमण कराया जाता है। परलोक में उसके लिए सुगति ३ (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पृ० ५५ के आधार पर (ख) स्वयंकृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्त यदि लभ्यते स्फट. स्वयं कतं कर्म निरर्थक तटा . .
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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