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________________ सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय विवेचन-निर्ग्रन्थ को संयम धर्म का उपदेश-प्रस्तुत चतुःसूत्री में निर्ग्रन्थ भिक्षु को संयमधर्म का अथवा स्वकर्तव्य का बोध दिया गया है । भिक्षुधर्म की चतु:सूत्री इस प्रकार है (१) पूर्व सम्बन्ध त्यागी अन्ययूथिक साधु सावद्य-कृत्योपदेशक होने से शरण ग्रहण करने योग्य नहीं हैं, (२) विद्वान् मुनि उन्हें भलीभाँति जानकर उनसे आसक्तिजनक संसर्ग न रखे, मध्यस्थभाव से रहे, (३) परिग्रह एवं आरम्भ से मोक्ष मानने वाले प्रव्रज्याधारियों का संग छोड़कर निष्परिग्रही, निरारम्भी महात्माओं की शरण में जाये, और (४) आहार सम्बन्धी ग्रासैषणा, ग्रहणषणा, परिभोगैषणा आसक्तिरहित एवं राग-द्वषमुक्त होकर करे। इस चतुःसूत्री में स्व-पर-समय (स्वधर्माचार एवं परधर्माचार) का विवेक बताया गया है। प्रथम कर्तव्यबोध : ये साधु शरण योग्य नहीं-भिक्षुधर्म के प्रथम सूत्र (गाथा ७६) में 'भो' शब्द से शास्त्रकार ने निर्ग्रन्थ शिष्यों का ध्यान केन्द्रित किया है कि ऐसे तथाकथित साधओं की शरण में न जाओ, अथवा वे शरण (आत्मरक्षण) देने में असमर्थ-अयोग्य हैं। वे शरण के अयोग्य क्यों हैं ? इसके लिए उन्होंने ५ कारण बतलाये हैं (१) ये बाल-मुक्ति के वास्तविक मार्ग से अनभिज्ञ हैं, (२) फिर भी अपने आपको पण्डित तत्त्वज्ञ मानते हैं, (३) साधु जीवन में आने वाले परीषहों एवं उपसर्गों से पराजित हैं, अथवा काम, क्रोधादि रिपुओं द्वारा विजित हारे हुए हैं, (४) वे बन्धु-बान्धव, धन-सम्पत्ति, जमीन-जायदाद तथा गृहस्थ प्रपञ्चरूप पूर्व (परिग्रह) सम्बन्ध को छोड़कर भी पुनः दूसरे प्रकार के परिग्रह में आसक्त हैं, और (५) गृहस्थ को सावद्य (आरम्भ-समारम्भयुक्त) कृत्यों का उपदेश देते हैं । बाला पंडितमाजिणो-इस अध्ययन की प्रथम सूत्र गाथा में बोधि प्राप्त करने और बन्धन तोड़ने कहा गया था, परन्तु बन्धन तोड़ने के लिए उद्यत साधकों को बन्धन-अबन्धन का बोध न हो, बन्धन समझ कर गृह-त्याग कर देने के पश्चात् भी जो पुनः गृहस्थ सम्बन्धी या गृहस्थवत् आरम्भ एवं परिग्रह में प्रवृत्त हो जायें, जिन्हें अपने संन्यास धर्म का जरा भी भान न रहे, वे लोग बालक के समान विवेक न होने से जो कुछ मन में आया कह या कर डालते हैं, इसी तरह ये तथाकथित गृहत्यागी भी कह या कर डालते हैं, इसीलिए शास्त्रकार ने इन्हें 'बाला' कहा है, पूर्वोक्त कारणों से ये अज्ञानी होते हुए भी अपने आपको महान् तत्त्वज्ञानी समझते हैं, रटा-रटाया शास्त्रज्ञान बघारते हैं। इस कारण शास्त्रकार ने इन्हें 'पण्डितमानी' कहा है। यहाँ वृत्तिकार एक पाठान्तर सूचित करते हैं कि 'बाला पंडित माणिणो' के बदले कहीं 'पत्थं बाल
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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