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चतुर्थ उद्देशक : गाथा ७६ से ७६
चउत्थो उद्देसओ
चतुर्थ उद्देशक मुनि धर्मोपदेश
७६. एते जिता भो ! न सरणं बाला पंडितमाणिणो।
हेच्चा णं पुश्वसंजोगं सिया किच्चोवदेसगा ॥१॥ ७७. तं च भिक्खू परिण्णाय विज्जं तेसु ण मुच्छए। ___अणुक्कसे अप्पलोणे मज्झेण मुणि जावए ॥२॥ ७८. सपरिग्गहा य सारंभा इहमेगेसि आहियं ।
अपरिग्गहे अणारंभे भिक्खू ताणं परिव्वए ॥३॥ ७६. कडेसु घासमेसेज्जा विऊ दत्तेसणं चरे।
अगिद्धो विप्पमुक्को य ओमाणं परिवज्जए । ४ ।।
७६. हे शिष्यो ! ये (पूर्वोक्त अन्यतीर्थी) साधु [काम, क्रोध आदि से अथवा परीषह-उपसर्ग रूप शत्रुओं से पराजित (जीते जा चुके) हैं, (इसलिए) ये शरण लेने योग्य नहीं हैं अथबा स्वशिष्यों को (शरण देने में समर्थ नहीं हैं । वे अज्ञानी हैं, (तथापि) अपने आपको पण्डित मानते हैं। पूर्व संयोग (बन्धु-बान्धव, धन-सम्पत्ति आदि) को छोड़कर भी (दूसरे आरम्भ-परिग्रह में) आसक्त हैं, तथा गृहस्थ को सावध कृत्यों का उपदेश देते हैं।
७७. विद्वान् भिक्षु उन (आरम्भ-परिग्रह में आसक्त साधुओं) को भली-भांति जानकर उनमें मूर्छा (आसक्ति) न करे; अपितु (वस्तुस्वभाव का मनन करने वाला) मुनि किसी प्रकार का मद न करता हआ उन अन्यतीथिकों, गृहस्थों एवं शिथिलाचारियों के साथ संसर्गरहित होकर, मध्यस्वभाव से संयमी जीवन-यापन करे; या मध्यवृत्ति से निर्वाह करे।
७८. मोक्ष के सम्बन्ध में कई (अन्यतीर्थी) मतवादियों का कथन है कि परिग्रहधारी और आरम्भ (आलम्भन हिंसाजनक प्रवृत्ति) से जीने वाले जीव भी मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। परन्तु निर्ग्रन्थ भावभिक्षु अपरिग्रही और अनारम्भी (आरम्भरहित महात्माओं) की शरण में जाए।
७६. सम्यग्ज्ञानी विद्वान् भिक्षु (गृहस्थ द्वारा अपने लिए) किये हुए (चतुर्विध) आहारों में से (कल्पनीय) ग्रास-यथोचित आहार की गवेषणा करे, तथा वह दिये हुए आहार को (विधिपूर्वक) लेने की इच्छा (ग्रहणैषणा) करे । (भिक्षा प्राप्त आहार में वह) गृद्धि (आसक्ति) रहित एवं (राग-द्वेष से) विप्रमुक्त (रहित) होकर (सेवन करे), तथा (किसी के द्वारा कुछ कह देने पर) मुनि उसका अपमान न करे, -(दूसरे के द्वारा किये गये) अपने अपमान को मन से त्याग (निकाल) दे।।