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तृतीय उद्देशक : गाथा ७० से ७१ -'णायं ण s सि कयाति वि' अर्थात् यह लोक कभी नहीं था' ऐसा नहीं है। अमणन्नसमुप्पादं दुक्खमेव-जिस दुःख की उत्पत्ति अमनोज्ञ-असत् अनुष्ठान से होती है। विजाणोया-बुद्धि विशेष रूप से जाने ।२४
अवतारवाद
७० सुद्ध अपावए आया इहमेगेसि आहितं ।
पुणो कोडा-पदोसेणं से तत्थ अवरज्मति ॥११॥ ७१ इह संवुडे मुणी जाए पच्छा होति अपावए ।
वियडं व जहा भुज्जो नीरयं सरयं तहा ॥१२॥
७०. इस जगत् में किन्हीं (दार्शनिकों या अवतारवादियों) का कथन (मत) है कि आत्मा शुद्धाचारी होकर (मोक्ष में) पापरहित हो जाता है । पुनः क्रीड़ा (राग) या प्रद्वेष (द्वष) के कारण वहीं (मोक्ष में ही) बन्ध युक्त हो जाता है।
___ ७१. इस मनुष्य भव में जो जीव संवृत--संयम-नियमादि युक्त मुनि बन जाता है, वह बाद में निष्पाप हो जाता है। जैसे-रज रहित निर्मल जल पुनः सरजस्क मलिन हो जाता है, वैसे ही वह (निर्मल निष्पाप आत्मा भी पुनः मलिन हो जाती है।)
विवेचन-राशिकवाद बनाम अवतारवाद-वृत्तिकार के अनुसार दोनों गाथा में गोशालक मतानुसारी (आजीवक) मत की मान्यता का दिग्दर्शन कराया गया है । समवायांग वृत्ति और इसी आगम के द्वितीय श्रु तस्कन्ध के छठे अध्ययन में त्रैराशिकों को आजीवक या गोशालक मतानुसारी बताया है। त्रैराशिक का अर्थ है-जो मत या वाद सर्वत्र तीन राशियाँ मानता है, जैसे जीव राशि, अजीव राशि और नोजीव राशि । यहाँ आत्मा की तीन राशियों का कथन किया गया है। वे तीन अवस्थाएँ इस प्रकार हैं
(१) राग-द्वेष सहित कर्म-बन्धन से युक्त पाप सहित अशुद्ध आत्मा की अवस्था,
(२) अशुद्ध अवस्था से मुक्त होने के लिए शुद्ध आचरण करके शुद्ध निष्पाप अवस्था प्राप्त करना, तदनुसार मुक्ति में पहुंच जाना।
(३) इसके पश्चात् शुद्ध-निष्पाप आत्मा जब क्रीड़ा-राग अथव प्रद्वष के कारण पुनः कर्मरज से
२४ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ४२ से ४५ तक
(ख) सूत्रकृतांग चूणि (मूलपाठ टिप्पण) पृ० १२