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________________ तृतीय उद्देशक : गाथा ६० से ६३ आजीवक, बौद्ध आदि आहार-दोष से अनभिज्ञ श्रमण हो, जो भी आधाकर्म दोष युक्त आहार करेगा, उसकी दुर्गति एवं अनन्त बार विनाश निश्चित है-'घातमेस्संति गंतसो'। आधाकर्म दोषयुक्त आहार की पहचान-आहार आधाकर्म दोषयुक्त कैसे जाना जाये ? क्या दूसरे शुद्ध आहार के साथ मिल जाने या मिला देने से वह आहार आधाकर्म दोषयुक्त नहीं रहता? इसके उत्तर में ६० वीं गाथा में स्पष्ट बता दिया गया है-'पूतिकडं सड्ढीमागंतुमीहियं । किसी श्रद्धालु भक्त द्वारा गाँव में आये हुए साधु या श्रमणादि के लिए बनाया हुआ आहार आधाकर्म दोषयुक्त आहार है। विशुद्ध आहार में उसका अल्पांश भी मिल जाय तो वह पूतिकृत आहार कहलाता है और एक, दो नहीं चाहे हजार घरों का अन्तर देकर साधु को दिया गया हो, साधु उसका सेवन करे तो भी वह साधु उक्त दोष से मुक्त नहीं होता। बल्कि शास्त्रकार कहते हैं-दुपक्खं चेव सेवए । आशय यह है कि ऐसे ..आहार का सेवी साधु द्विपक्ष दोष-सेवन करता है। 'दुपक्ख' (द्विपक्ष) के तीन अर्थ यहाँ फलित होते हैं (१) स्वपक्ष में तो आधाकर्मी आहार-सेवन का दोष लगता ही है, गृहस्थ पक्ष के दोष का भी भोगी वह हो जाता है, अतः साधु होते हुए भी वह गृहस्थ के समान आरम्भ का समर्थक होने से द्विपक्ष-सेवी है। (२) ऐपिथिकी और साम्परायिकी दोनों क्रियाओं का सेवन करने के कारण द्विपक्ष-सेवी हो गया। आहार लाते समय ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है और दोषयुक्त आहार लेने व सेवन करने से माया और लोभ दोनों कषायों के कारण साम्परायिकी क्रिया भी लगती है। (३) दोषयुक्त आहार लेने से पहले शिथिल रूप से बाँधी हुई कर्म प्रकृतियों को वह निधत्त और निकाचित रूप से गाढ़ स्थिति में पहुँचा देता है । अतः वह द्विपक्ष-सेवी है। कठिन शब्दों की व्याख्या-सड्डीमागंतुमोहियं-चूर्णिकार के शब्दों में श्रद्धा अस्यास्तीतिश्राद्धी आगच्छन्तीत्यागन्तकाः । तः श्राद्धीभिरागन्तुनन प्रेक्ष्य प्रतीत्य बक्खडियं । अधवा सद्धित्ति जे एकतो वसंति तानुद्दिश्य कृतम् । तत् पूर्वपश्चिमानां आगन्तुकोऽपि यदि सहस्संतरकडं भुजे दुपवखं णाम पक्षौ द्वो सेवते । अर्थात-जिसके हृदय में श्रद्धा (साधुजनों के प्रति) है, वह श्राद्धी है। जो नये आते हैं वे आगन्तुक हैं। उन श्रद्धालुओं द्वारा आगन्तुक साधुओं के उद्देश्य से अथवा उन्हें आये देख जो आहार तैयार कराया है। अथवा श्राद्धी का अर्थ है, जो साधक एक ओर रहते हैं, उन्हें उद्देश्य करके जो आहार बनाया है, उस आहार को यदि पहले या पीछे आये हुए आगन्तुक भिक्षु, श्रमण या साधु यदि हजार घर में ले जाने के पश्चात् भी सेवन करता है, तो द्विपक्ष दोष का सेवन करता है। वृत्तिकार के अनुसार-श्रद्धावताऽन्येन भक्तिमताऽपरान् आगन्तुकान् उद्दिश्य ईहितं चेष्टितम् निष्पावितम्अर्थात् दूसरे भक्तिमान् श्रद्धालु ने दूसरे आये हुए साधकों के उद्देश्य (निमित्त) से बनाया है, तैयार किया है। प्रतिकडं-आधाकर्मादि दोष के कण से भी जो अपवित्र दूषित है। तमेव अजाणता विसमंसि अकोशिया-आधाकर्मादि आहार दोष के सेवन को न जानने वाले विषम अष्टविध कर्मबन्ध से करोड़ों जन्मों ३ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ४०-४१ के आधार पर
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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