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सूत्रकृतांग - प्रथम अध्ययन - समय
यहाँ शास्त्रकार ने भी आहार शुद्धि पर जोर दिया है । अगर साधु का आहार आधाकर्मादिदोषदूषित होगा तो वह हिंसा का भागी तो होगा ही, उसके विचार, संस्कार एवं अन्तःकरण निर्बल हो जायेंगे दूषित आहार से साधु के सुख-शील कषाय युक्त प्रमादी बन जाने का खतरा है । ६३ वीं सूत्र गाथा में स्पष्ट कहा गया है— 'वट्टमाण सुहेसिणो ।' आशय यह है कि आहार-विहार की निर्दोषता को ठुकराकर वे साधक वर्तमान में सुख-सुविधाओं को ढूंढ़ते रहते हैं, प्रमादी बनकर क्षणिक वैषयिक सुखों को देखते हैं, भविष्य के महान् दुःखों को नहीं देखते ।
प्रश्न होता है - आधाकर्मादि दोषयुक्त आहार का सेवन करने से कौन-से दुःख और कैसे प्राप्त होते हैं ? इसके समाधान हेतु भगवती सूत्र में यह द्रष्टव्य है - श्रमण भगवान महावीर से गणधर गौतम ने एक प्रश्न पूछा - 'भगवन् ! आधाकर्मी ( दोषयुक्त) आहार का सेवन करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ किस कर्म का बन्ध करता है ? कौन-सा कर्म प्रबल रूप से करता है ? कितने कर्मों का चय-उपचय करता है ?"
उत्तर में भगवान ने कहा - " गौतम ! आधाकर्मी आहारकर्ता आयुष्य कर्म के सिवाय शेष ७ शिथिल नहीं हुई कर्म - प्रकृतियों को गाढ़ बन्धनों से बद्ध कर लेता है, कर्मों का चय- उपचय करता है। यावत् दीर्घकाल तक संसार में परिभ्रमण करता है । "
यहाँ वैशालिक जाति के मत्स्य से तुलना करते हुए शास्त्रकार ने स्पष्ट बताया है जिस प्रकार वैशालिक या विशालकाय मत्स्य समुद्र में तूफान आने पर ऊँची-ऊंची उछलती हुई लहरों के थपेड़े खाकर चले जाते हैं । उन प्रबल तरंगों के हटते ही गीले स्थान के सूख जाने पर वे समुद्र तट पर ही पड़े-पड़े तड़फते हैं, उधर मांसलोलुप ढंकादि पक्षियों या मनुष्यों द्वारा वे नोंच-नोंचकर फाड़ दिये जाते हैं । रक्षक के अभाव में वे वहीं तड़फ तड़फ कर मर जाते हैं । यही हाल आधाकर्मी आहारभोजी का होता है, उन्हें भी गाढ़ कर्म बन्धन के फलस्वरूप नरक तिर्यंच आदि दुर्गंतियों में जाकर दुःख भोगने पड़ते हैं, नरक में परमाधार्मिक असुर हैं, तिथंच में मांसलोलुप शिकारी, कसाई आदि हैं, जो उन्हें दुःखी कर देते हैं ।
आहार-दोष का ज्ञान न हो तो ? कोई यह पूछ सकता है कि अन्यतीर्थी श्रमण, भिक्षु आदि जो लोग आधाकर्मादि दोषों से बिलकुल अनभिज्ञ है, उनके ग्रन्थों में आहार-दोष बताया ही नहीं गया है, न हीं उनके गुरु, आचार्य आदि उन्हें आहार-शुद्धि के लिए आधाकर्मादि दोष बताते हैं । वे संसार परिभ्रमण के कारण और निवारण के सम्बन्ध में बिल्कुल अकुशल हैं। न वे दूषित आहार ग्रहणजनित हिंसादि आस्रवों को पाप कर्मबन्ध का कारण मानते हैं, ऐसी स्थिति में उनकी क्या दशा होगी ? इसके उत्तर में दो शब्दों में यहाँ कहा गया- ते दुही - वे दुःखी होते हैं । चाहे आहार दोष जानता हो, या न जानता हो, जो भी साधक आधाकर्मी आहार करेगा, उसे उसका कटुफल भोगना ही पड़ेगा ।
वृत्तिकार ने यहाँ निष्पक्ष दृष्टि से स्पष्ट कर दिया है— चाहे आहार दोषविज्ञ जैन श्रमण हो अथवा
२ 'आहाकम्मं णं भुजमाणे समणे निग्गंथे कि बंधइ ? कि पकरेइ कि चिणाइ, किं उपचिणाइ ?"
गोमा ! आहाकम्मं णं भुजमाणे आउयवज्जाओ सत्तकम्मपगडीओ पकरेइ, जाव अणुपरियट्टइ ।”
सिढिल बंधण- बद्धाओ धणियबंधण बद्धाओ - भगवती सूत्र शतक ७, उ० ६, सू० ७८