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________________ सुबहतांग प्रथम अध्ययन-समय पास्त्रकार ने इस सन्दर्भ में बौद्ध मतानुसार पाप कर्मबन्ध के तीन कारण (५३-५४ वीं गाथाओं प्राणा) बनाये हैं-(२) स्वयं किसी प्राणी को मारने के लिए उस पर आक्रमण या प्रहार करना । (२) नौकर आदि दूसरों को प्रेरित या प्रेषित करके प्राणिवध कराना और (३) मन से प्राणिवध के लिए अनुज्ञा-अनुमोदना करना । ये तीनों पाप कर्म के उपचय (बन्ध) के कारण इसलिए हैं कि इन तीनों में दुष्ट अध्यवसाय-रागद्वेष युक्त परिणाम रहता है। भाव-शुद्धिसे कर्मोपचय मही : एक विश्लेषण-इसीलिए ५४ वीं गाथा के अन्त में उन्हीं का मस-प्ररूमण करते हुए कहा गया है-'एवं भावविसोहीए णिव्याणमभिगच्छति' इसका आशय यह है कि जहां राग-द्वष सहित बुद्धि से कोई प्रवृत्ति होती है, ऐसी स्थिति में जहाँ केवल विशुद्ध मन से या केवल शरीर से प्रापातिपात हो जाता है, वहाँ भाव-विशुद्धि होने के कारण कर्मोपचय नहीं होता, इससे जीव निर्वाण प्राप्त कर लेता है। इस सम्बन्ध में बौद्ध-ग्रन्थ सुत्तपिटक के खुद्दकनिकाय के बालोवाद जातक में बुद्ध वचन मिलता है-"दूसरे मांस की बात जाने दो) कोई असंयमी पुरुष अपने पुत्र तथा स्त्री को मारकर उस मांस का दान करे, और प्रज्ञावन संयमी (भिक्षु) उस मांस का भक्षण करे तो भी उसे पाप नहीं लगता।"२० इसौ बुद्ध वचन का आशय लेकर शास्त्रकार ने ५५ वीं सूत्र गाथा में संकेत किया है । यद्यपि चूर्णिभार सम्मत और बृत्तिकार सम्मत दोनों पाठों में थोड़ा-सा अन्तर है, इसलिए अर्थ भेद होते हुए भी दोनों का आशय समान है । चूर्णिकारसम्मत पाठ है-'पुत्तं पिता समारम्भ आहारट्ठमसंजए और वृन्तिकार सम्मत पाठ है-'पुत्तं पिया समारम आहारेज्ज असंजए।१ 'णिकार ने इसकी व्याख्या यों की है- 'पुत्र का भी समारम्भ करके; समारम्भ का अर्थ है-बेच कर, मारकर उसके मांस से या द्रव्य से और सो क्या कहें, 'पुत्र न हो तो सूअर या बकरे को भी मारकर भिक्षुओं के आहारार्थ भोजन बनाए, स्वयं भी खाये । कौन? असंयत अर्थात् भिक्षु के अतिरिक्त, उपासक या अन्य कोई गृहस्थ उस त्रिकोटि शुद्ध भोजन को सेवन करता हुआ वह मेधावी भिक्षु कर्म से 'लिप्त नहीं होता। १६ ".."इमेसं खो अहं, तपस्सि, तिणं कम्मानं एवं पटिविभत्तानं एवं पटिविसट्टानं मनोकम्म महासावज्जतरं पञपेमि, पापस्स कम्मरस किरियाय, पापस्स कम्मस्स पवत्तिया, नो तथा कायकम्म, नो तथा वची कम्मति । -सुत्तपिटके मंज्झिमनिकाय (पा० भा० २) म०पण्णा० उपालि सुत्तं पृ० ४३-६० २० पुत्त-दारंपि चे हन्त्वा, देति दानं असञ्चतो।। मुञ्जमानो पि संप्पो , न पापमुपलिम्पती॥" -सुत्तपिटक, खुद्दक निकाय, बालोवादजातक पृ० ६४ २१ सूत्रकृतांग चूणि (मूल पाठ टिप्पण) पृ०६ २२ पं० बेचरदास जी दोशी के अनुसार 'पुत्त' शब्द 'शूकर' का द्योतक है; बुद्धचर्या के अनुसार बुद्ध ने 'शूकर मद्दवे' (शूकर मांस) खाया था। -जैन सा० इति० भाग १, पृ० १३३ २३ सूत्रकृतांग चूणि पृ० ३५-पुत्रमपि तावत् समारम्य, समारम्भो नाम विक्रीय मारयित्वा, तन्मसिन वा द्रव्येण वा, किमंग पुणरपुत्रं शूकरं वा छग्गलं वा, आहारार्थ कुर्याद मुक्त भिक्खूणं, अस्संजतो नाम भिक्खुव्यतिरिक्तः स पुनरुपासकोऽन्यो वा, तं च भिक्षुः त्रिकोटि-शुद्ध मुजानोऽपि मेधावी कम्मुणा गोवमिप्यते ।"
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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