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________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा ५१ से ५६ कैसे-कैसे, किन-किन कारणों से, किस-किस तीब्र मन्द आदि रूप में बंध जाते हैं । वे सुख-दुःख आदि के जनक हैं या नहीं ? उनसे छूटने के उपाय क्या-क्या हैं ? इत्यादि कर्म-सम्बन्धी चिन्ता-चिन्तन से एकान्त क्रियावादी दूर है। ___ "कोई भी क्रिया, भले ही उससे हिंसादि हो, चित्तशुद्धिपूर्वक करने पर कर्मबन्धन नहीं होता"-इस प्रकार की कर्मचिन्ता से दूर रहने के कारण ही शायद बौद्धों को एकान्त क्रियावादी कहा गया होगा। इसके अतिरिक्त बौद्ध दार्शनिक अज्ञान आदि से किये गये चार प्रकार के कर्मोपचय को कर्मबन्ध का कारण नहीं मानते । उन चारों में से दो प्रकार के कर्मों का उल्लेख गाथा ५२ में किया है-(१) परिज्ञोपचित कर्म-कोपादि कारणवश जानता हुआ केवल मन से चिन्तित हिंसादि कर्म, शरीर से नहीं, और (२) अविज्ञोपचित कर्म-अनजाने में शरीर से किया हुआ हिंसादि कर्म । नियुक्तिकार ने इन चारों का वर्णन पहले किया है उनमें शेष दो हैं—(३) ईर्यापथ कर्म-मार्ग में जाते अनभिसन्धि से होने वाला हिंसादि कर्म और (४) स्वप्नान्तिक कर्म-स्वप्न में होने वाला हिंसादि कर्म ।" ये चारों प्रकार के कर्म उपचय को प्राप्त नहीं होते-अर्थात् तीव्र विपाक (फल) देने वाले नहीं बनते। जैसा कि शास्त्रकार ने गाथा ५२ में कहा है-'पुट्ठो संवेदेति परं'। इन चारों प्रकार के कर्मों से पुरुष स्पृष्ट होता है, बद्ध नहीं। अतः ऐसे कर्मों के विपाक का भी स्पर्शमात्र ही वेदन (अनुभव) करता है। ये चतुर्विध कर्म स्पर्श के बाद ही नष्ट हो जाते हैं, यही सोचकर कर्मबन्धन से निश्चिन्त होकर वे क्रियाएँ करते हैं। कर्मबन्धन कब होता है, कब नहीं ? चूर्णिकार ने उक्त मत के सन्दर्भ में प्रश्न उठाया है कि कर्मोपचय (कर्म बन्धन) कब होता है ? उसका समाधान देते हुए कहा है-(१) प्रथम तो हनन किया जाने वाला प्राणी सामने हो, (२) फिर हनन करने वाले को यह भान (ज्ञान) हो कि यह प्राणी है, (३) उसके पश्चात् हनन करने वाले की ऐसी बुद्धि हो कि मैं इसे मारूं या मारता हूं। इन तीन कारणों के अतिरिक्त उनके सार दो कारण और हैं-(१) पूर्वोक्त तीन कारणों के रहते हए यदि वह उस प्राणी को शरीर से मारने की चेष्टा करता है, और (२) उस चेष्टा के अनुसार उस प्राणी को मार दिया जाता है-प्राणों का वियोग कर दिया जाता है; तब हिंसा होती है, और तभी कर्म का भी उपचय होता है । १७ (क) "तेषां हि परिज्ञोपचितं ईर्यापथं, स्वप्नान्तिकं च कर्मचयं न यातीत्यतस्ते कम्मचितापणट्ठा ।" . -सूत्रकृतांग चूणि मू० पा० टि० पृ० ६ (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ३१ (ग) सूत्रकृतांग नियुक्ति गाथा ३१ में कहा गया-'कम्म चयं न गच्छइ चउविहं भिक्खु समयंसि' बौदागम में चतुर्विध कर्म उपचय को प्राप्त नहीं होता। १८ (क) 'स्यात्-कथं पुनरुपचीयते ? उच्यते, यदि सत्त्वश्च भवति ?, सत्त्व संज्ञा च २, संचित्य संचित्य ३ जीविताद् व्यपरोपणं प्राणातिपातः ॥' -सूत्रकृ० चूर्णि, मू० पा० टिप्पण पु. १ (ख) "प्राणी प्राणिज्ञानं घातकचित्तं च तदगता चेष्टा । प्राणश्च विप्रयोगः, पंचभिरापद्यते हिंसा ॥" -सूत्र० शीलांक वृत्ति पत्र. ३७
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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