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द्वितीय उद्देशक : गाथा ५१ से ५६
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अनुसार, वे दुःखरूप संसार को लांघ नहीं सकते। पार नहीं कर सकते। वृत्तिकार के अनुसार, असातोदयरूप दुःख को या उसके मिथ्यात्व आदि से बाँधे हुए कर्मबन्धन रूप कारण को अतिशय रूप से; व्यवस्थित ढंग से नहीं तोड़ सकते। णो अण्णं पज्जुवासिया-अन्य की उपासना-सेवा नहीं की। अन्य का अर्थ है-आर्हतादि ज्ञानवादियों की पर्युपासना नहीं की। अयमंजू-हमारा यह अज्ञानात्मक मार्ग ही अंजूनिर्दोष होने से व्यक्त या स्पष्ट है। सउणी पंजरं जहा-जैसे पिंजरे में बन्द पक्षी पिंजरे को तोड़ने में, तथा पिंजरे के बन्धन से स्वयं को मुक्त करने में समर्थ नहीं होता, वैसे ही अज्ञानवादी संसार रूप पिंजरे को तोड़कर उससे अपने आपको मुक्त करने में समर्थ नहीं होता । विउस्संति-वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किये हैं-संस्कृत में इसका रूपान्तर होता है-विद्वस्यन्ते-विद्वान् की तरह आचरण करते हैं अथवा'विशेषेण उशन्ति-स्वशास्त्रविषये विशिष्टं युक्तिवातं वदन्ति, अर्थात् अपने शास्त्रों के पक्ष में विशिष्ट युक्तियों का प्रयोग करते हैं। संसारं ते विउस्सिया-वत्तिकार ने इसकी दो व्याख्याएं प्रस्तुत की हैं-"संसारं चतुर्गतिभेदेन संसृतिरूपं विविधं-अनेकप्रकारं उत्-प्राबल्येन श्रिताः सम्बद्धाः, तत्र वा संसारे उषिताःसंसारान्तर्वर्तिनः सर्वदा भवन्तीत्यर्थः ।" अर्थात् -चार गतियों में संसरण-भ्रमणरूप इस संसार में जो अनेक प्रकार से दृढ़तापूर्वक बँधे हुए हैं अथवा जो इस संसार में निवास करने वाले हैं।'५ कर्मोपचय निषेधवाद : क्रियावादी दर्शन
५१. अहावरं पुरक्खायं किरियावाइदरिसणं ।
कम्मचिंतापणट्ठाणं संसारपरिवड्डणं ॥ २४ ॥ . ५२. जाणं काएणऽणाउट्टो अबुहो जं च हिंसती।
पुट्ठो संवेदेति परं अवियत्त खु सावज्ज ॥ २५ ॥ ५३. संतिमे तओ आयाणा जेहिं कीरति पावगं ।
अभिकम्माय पेसाय मणसा अणुजाणिया ॥ २६ ॥ ५४. एए उ तओ आयाणा जेहि कीरति पावगं ।
एवं भावविसोहीए णिव्वाणमभिगच्छतो ।। २७ ॥ ५५. पुत्तं पिता समारंभ आहारटुमसंजए।
भुजमाणो य मेधावी कम्मुणा नोवलिप्पति ॥२८॥ ५६. मणसा जे पउस्संति चित्तं तेसि न विज्जती।
अणवज्जं अतहं तेसिं ण ते संवुडचारिणो ॥ २६ ॥ ५१. दूसरा पूर्वोक्त (एकान्त) क्रियावादियों का दर्शन है। कर्म (कर्म-बन्धन) की चिन्ता से रहित (उन एकान्त क्रियावादियों का दर्शन) (जन्म-मरण-रूप) संसार की या दुःख समूह की वृद्धि करने वाला है।
१५ (क) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक ३२ से ३७ तक
(ख) सूत्रकृतांग चूणि (मूल पाठ टिप्पण) पृ० ६ से १ तक