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द्वितीय उद्देशक : गाथा ३३ से ५०
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सहारे अपनी मान्यता सिद्ध करते हैं । जैसे पिंजरे में बन्द पक्षी उसे तोड़कर बाहर नहीं निकल सकता वैसे ही अज्ञानवादी अपने मतवादरूपी या संसाररूपी पिंजरे को तोड़कर बाहर नहीं निकल सकते । वे केवल अपने ही मत की प्रशंसा में रत रहते हैं, फलतः अज्ञानवादरूप मिथ्यात्व के कारण वे संसार के बन्धन में दृढ़ता से बंध जाते हैं । जो अज्ञान को श्र ेयष्कर मानने वाले दूसरे प्रकार के अज्ञानवादी हैं, शास्त्रकार उनका भी निराकरण ४४ से ४६ तक तीन गाथाओं में करते । उनका भावार्थ यह है
- "अज्ञान योवादी अज्ञान को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयास करते हैं, वह सब विचारचर्चा ज्ञान (अनुमान आदि प्रमाणों तथा तर्क, हेतु युक्ति) द्वारा करते हैं, यह 'वदतोव्याघात' जैसी बात है । वे अपने अज्ञानवाद को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए ज्ञान का सहारा क्यों लेते हैं ? ज्ञान का आश्रय लेकर तो वे अपने ही सिद्धान्त का अपने विरुद्ध व्यवहार से खण्डन करते हैं । उन्हें तो अपनी बुद्धि पर ताला लगाकर चुपचाप बैठना चाहिए। जब वे स्वयं अज्ञानवाद सिद्धान्त के अनुशासन में नहीं चल सकते, तब दूसरों (शिष्यों) को कैसे अनुशासन में चलायेंगे ? साथ ही, अज्ञानवाद के शिक्षार्थियों को वे ज्ञान को तिलांजलि देकर कैसे शिक्षा दे सकेंगे ?
अज्ञानवाद ग्रस्त जब स्वयं सन्मार्ग से अनभिज्ञ हैं, तब उनके नेतृत्व में बेचारा दिशामूढ़ माग से अनभिज्ञ भी अत्यन्त दुःखी होगा । वहाँ तो यही कहावत चरितार्थ होगी - 'अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः ।' अंधे मार्गदर्शक के नेतृत्व में चलने वाला दूसरा अन्धा भी मार्ग भ्रष्ट हो जाता है, वैसे ही सम्यग् मार्ग से अनभिज्ञ अज्ञानवादी के पीछे चलने वाले नासमझ पथिक का हाल होता है । १२
इन दोनों में से दूसरे प्रकार की भूमिका वाले अज्ञान योवादी की तुलना भगवान् महावीर के समकालीन मतप्रवर्तक 'संजय वेलट्ठिपुत्त' नामक अज्ञानवादी से की जा सकती है। जिसका हर पदार्थ के प्रश्न के सम्बन्ध में उत्तर होता था - "यदि आप पूछें कि क्या परलोक है ? और यदि मैं समझू कि परलोक है तो आपको बतलाऊं कि परलोक है। मैं ऐसा भी नहीं कहता, मैं वैसा भी नहीं कहता, मैं दूसरी तरह से भी नहीं कहता, मैं यह भी नहीं कहता कि यह नहीं है, मैं यह भी नहीं कहता कि यह नही नहीं है । परलोक नहीं है । परलोक है भी और नहीं भी, परलोक न है और न नहीं है ।" संजय वेलट्ठिपुत्त ने कोई निश्चिंत बात नहीं कही । निष्कर्ष यह है कि संजयवेलट्ठिपुत्त के मतानुसार तत्त्वविषयक अज्ञयता अथवा अनिश्चितता ही अज्ञानवाद की आधारशिला है, जिसका सामान्य उल्लेख गाथा ४३ में हुआ है - 'निच्छत्थं ण जाणंति ।' यह मत पाश्चात्यदर्शन के संशयवाद अथवा अज्ञ ेयवाद से मिलता-जुलता है ।
निकाय के ब्रह्मजालसुत्त में अमराविक्खेववाद में जो तथागत बुद्ध द्वारा प्रतिपादित वर्णन है, वह भी सूत्रकृतांग प्र० श्र० के १२ वें अध्ययन में उक्त अज्ञानवाद से मिलता-जुलता है । जैसे- “भिक्षुओ !
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१२ सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक ३५-३६ के आधार पर
१३ (क) “....संजयो वेलट्ठपुत्तो मं एतदवोच - 'अत्थि परो लोकोति इति चे मं पुच्छसि, अस्थि परो लोको नि इति चे मे अस्स, अत्थि परो लोको ति इति ते न व्याकरेय्यं । एवं तिपि मे नो, तथा ति पि मे नो, अञ्ञथा तिपि मे लोको पे... अत्थि च नत्थि च परो लोको पेनेवत्थि - सुत्तपिटके दीघनिकाये सामञ्ञफलसुत्तं पृ० ४१-५३
नो, नो तिपि मे नो, नो नो तिपि मे नो । नत्थि परो न नत्थि परो लोको...पे....।" (ख) जैन साहित्य का बृहत् इतिहास भा० १, पृ० १३३