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आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
- विवेचन- सचित्त से संस्पृष्ट आहार-ग्रहण का निषेध- प्रस्तुत तीनों सूत्र (३६१, ३६२, ३६३) में क्रमशः वनस्पतिकायिक, पृथ्वीकायिक एवं अग्निकायिक जीवों में संस्पृष्ट आहार के ग्रहण करने का निषेध किया गया है। चावल, गेहूँ , बाजरी, जौ, मक्का आदि को गृहस्थ पूंजते हैं, सेकते हैं, मूड़ी, धानी या फूली आदि बनाते हैं, अथवा उसके कच्चे सिट्टों को आग में सेकते हैं, अथवा उन्हें गर्म पानी में उबालते हैं या उन्हें कूटते-पीसते हैं। इन सब प्रक्रियाओं में बहुत से अखण्ड दाने रह जाते हैं, पूरी तरह से अग्नि में न पकने के कारण या शस्त्र-परिणत ठीक से न होने के कारण वनस्पति और पृथ्वी (विविध प्रकार की मिट्टी) भी कच्ची या अर्धपक्व सचित्त रह जाती है। इसलिए सचित्त में संस्पृष्ट वनस्पतिकायिक अनाज या फल आदि, पृथ्वीकायिक नमक आदि को गृहस्थ साधु के लिए और अधिक कूट-पीस कर या शस्त्र-परिणत करके रखता है, रख रहा है या रखेगा, ऐसा मालूम होने पर साधु को उस आहार को ग्रहण नहीं करना चाहिए।
_ 'उफणिंसु' आदि शब्दों के अर्थ-उफणिंसु-चावलों आदि का भूसा अलग करने के लिए सप में भरकर हवा में ऊपर से गिराने को उफनना कहते हैं,यहाँ उनकी-भूतकालिक क्रिया है। भिदिंसु-भेदन कर चुका, टुकड़े कर लिए।रुचिंसु-पीस लिया। बिलं वा लोणं-किसी विशिष्ट खान में उत्पन्न हुआ लवण, उपलक्षण से सैन्धव, सैचल आदि नमक का भी ग्रहण कर लेना चाहिए, 'उब्भियं वा लोणं'–उद्भिज लवण-समुद्र के तट पर क्षार और जल के सम्पर्क से जो तैयार होता है, वह उद्भिज लवण है।
उस्सिचमाणे-आँच पर रखे बर्तन में से आहार को बाहर निकालता हुआ, निस्सिचमाणेउफनते हुए दूध आदि को पानी के छींटे देकर शान्त करता हुआ, आमजमाणे-पमज्जमाणेहाथ से एक बार हिलाता हुआ, बार-बार हिलाता हुआ, उतारेमाणे-आंच पर से नीचे उतारता हुआ, उयत्तमाणे- बर्तन को टेढ़ा करता हुआ।
३६४. एतं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं।
३६४. यह (सचित्त – संसृष्ट आहार-ग्रहण-विवेक) ही उस भिक्षु या भिक्षुणी की (ज्ञानदर्शन-चरित्रादि आचार -) समग्रता है। ३
॥छठा उद्देशक समाप्त॥
१. टीका पत्र ३४३ के आधार पर २. तुलना कीजिये
बिडमुब्भेइमं लोणं तेल्लं सप्पियं च फाणियं..। -दशवै० अ०६ गा० १७ ३. इसका विवेचन प्रथम उद्देशक के ३३४ वें सूत्र की तरह समझें।