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आचौरांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध विवेचन-रस लोलुपता और माया-इस सूत्र का आशय स्पष्ट है। प्राघूर्णक (पाहुने) साधुओं के साथ जो साधु स्वाद-लोलुपतावश माया करता है, वह साधु स्व-पर-वंचना तो करता ही है, आत्म-विराधना और भगवदाज्ञा का उल्लंघन भी करता है। शास्त्रकार की ऐसे मायिक साधु के लिए गम्भीर चेतावनी है। आचारांगचूर्णि और निशीथचूर्णि में इसका विशेष स्पष्टीकरण किया गया है।
३५१. एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं। ३५१. यही संयमी साधु-साध्वी के ज्ञानादि आचार की समग्रता है।
॥चतुर्थ उद्देशक समाप्त॥
पंचमो उद्देसओ
पंचम उद्देशक अग्रपिण्ड-ग्रहण-निषेध
३५२. से भिक्खू वा २ जाव पविढे समाणे से जं जुण जाणेज्जा, अग्गपिंडं उक्खिप्प माणं पेहाए, अग्गपिंडं णिक्खिप्पमाणं पेहाए, अग्गपिंडं हीरमाणं पेहाए, अग्गपिंडं परिभाइजमाणं पेहाए, अग्गपिंडं परिभुजमाणं पेहाए, अग्गपिंडं परिट्ठविजमाणं पेहाए, पुरा असिणादि ५ वा अवहारादिवा, पुरा जत्थऽण्णे समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमगा खद्धं खद्धं उवसंकमंति, से हंता अहमवि खलु उवसंकमामि। माइट्ठाणं संफासे। णो एवं
करेजा।
३५२. वह भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में भिक्षा के निमित्त प्रवेश करने पर यह जाने कि अग्रपिण्ड निकाला जाता हुआ दिखायी दे रहा है, अग्रपिण्ड रखा जाता दिखायी दे रहा है, (कहीं)
१. देखिए आचारांग मूलपाठ टिप्पण पृ० ११८ २. इसका विवेचन सूत्र ३२४ के अनुसार समझ लेना चाहिए। ३. किसी-किसी प्रति में 'अग्गपिंडं' और किसी प्रति में 'अग्गपिंडं परिभाइज्जमाणं पेहाए' पाठ नहीं है। ४. 'परिभुंजमाणं' पाठान्तर कहीं-कहीं मिलता है।
'असिणादि वा अवहारादि वा' के स्थान पर किन्हीं प्रतियों में 'असणादि वा अवहाराति वा' पाठ है। चूर्णिकार इस पंक्ति का अर्थ यों करते हैं- 'पुरा असणादि वा तत्थेव भुंजंति, जहा बोडियसक्खा, अवहरति णाम उक्कढति' अर्थात् पहले जैसे अन्य बोटिकसदृश भिक्षु अग्रपिण्ड का उपभोग कर गये थे, वैसे ही निर्ग्रन्थ खाता है। अवहरित का अर्थ है-निकलता है। चूर्णिकार के शब्दों में व्याख्या-खद्धं खद्धं णाम बहवे अवसंकमंति तुरियं च, तत्थ भिक्खू वि तहेव। अर्थात्-खद्धं खद्धं का अर्थ है-बहुत-से भिक्षुक जल्दी-जल्दी आ रहे हैं, वहाँ भिक्षु भी इसी प्रकार का विचार करता है तो।