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प्रथम अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र ३३९-३४०
उव्वस्सयंसिवा रातो वा वियाले वा गामधम्मनियंतियं कट्ट रहस्सियं मेहुणधम्मपवियारणाए' आउट्टामो। तं चेगइओ३ सातिजेजा।
अकरणजिं चेतं संखाए, एते आयाणा संति संचिजमाणा ५ पच्चवाया भवंति। तम्हा से संजए णियंठे तहप्पगारं पुरेसंखडि वा पच्छासंखडिं वा संखडिं संखडिपडियाए णो अभिसंधारेजा गमणाए।
३४०. कदाचित् भिक्षु अथवा अकेला साधु किसी संखडि (बृहद् भोज) में पहुँचेगा तो वहाँ अधिक सरस आहार एवं पेय खाने-पीने से उसे दस्त लग सकता है, या वमन (कै) हो सकता है अथवा वह आहार भलीभाँति पचेगा नहीं (हजम न होगा); फलतः (विशूचिका, ज्वर या शूलादि) कोई भयंकर दुःख या रोगातंक पैदा हो सकता है।
इसीलिए केवली भगवान् ने कहा- 'यह(संखडि में गमन) कर्मों का उपादान कारण है।'
इसमें (संखडिस्थान में या इसी जन्म में ) (ये भयस्थल हैं) - यहाँ भिक्षु गृहस्थोंगृहस्थपत्नियों अथवा परिव्राजक-परिव्राजिकाओं के साथ एकचित्त व एकत्रित होकर नशीला पेय पीकर (नशे में भान भूलकर) बाहर निकल कर उपाश्रय (वासस्थान) ढूँढने लगेगा, जब वह नहीं मिलेगा, तब उसी (पान-स्थल) को उपाश्रय समझकर गृहस्थ स्त्री-पुरुषों व परिव्राजक-परिव्राजिकाओं के साथ ही ठहर जाएगा। उनके साथ घुलमिल जाएगा। वे गृहस्थ-गृहस्थपत्नियाँ आदि (नशे में) मत्त एवं अन्यमनस्क होकर अपने आपको भूल जाएँगे, साधु अपने को भूल जाएगा। अपने को भूलकर वह स्त्री शरीर पर या नपुंसक पर आसक्त हो जाएगा। अथवा स्त्रियाँ या नपुसंक उस भिक्षु के पास आकर कहेंगे - आयुष्मन् श्रमण! किसी बगीचे या उपाश्रय में रात को या विकाल में एकान्त में मिलें। फिर कहेंगे- ग्राम के निकट किसी गुप्त, प्रच्छन्न, एकान्तस्थान में हम मैथुनसेवन किया करेंगे। उस प्रार्थना को कोई एकाकी अनभिज्ञ साधु स्वीकार भी कर सकता है। १. गामधम्मणियंतियं के बदले 'गामणियंतियं कण्हुई रहस्सितं' पाठ मानकर व्याख्या करते हैं
गामणियंतियं गाममब्भासं कण्हुइ रहस्सित कम्हिति रहस्से उच्छुअक्खा वा अन्नतरे वा पच्छण्णे, मिहु रहस्से सहयोगे च, पतियरणं पवियारणा (पवियारणाए) आउट्टामो-कुर्वीमो। गामणियंतिय - यानी ग्राम के निकट किसी एकान्त स्थान में, इक्षु के खेत में या किसी प्रच्छन्न स्थान में। मिहु का अर्थ है- रहस्य या
'सहयोग, प्रविचारणा-मैथुन सेवन, आउट्टामो; करेंगे। २. चूर्णिकार इसका अर्थ करते हैं-'पतियरण पवियारणा अर्थात् -प्रतिचरण -(मैथुन करना) प्रविचारणा। ३. चेगइओ के बदले किसी-किसी प्रति में चेगणिओ, एगतीयो पाठान्तर है। अर्थ समान है।
'आयाणा' के बदले पाठान्तर मिलता है-आयाणाणि आयतणाणि आदि। अर्थ में अन्तर है, प्रथम का अर्थ है, कर्मों का आदान (ग्रहण) तथा द्वितीय का अर्थ है-दोषों का आयतन स्थान है। संचिजमाणा के बदले किसी-किसी प्रति में संविजमाणा तथा संधिजमाण है, अर्थ क्रमशः हैसंवेदन (अनुभव) किये जाने वाले, कर्म पुद्गलों को अधिकाधिक धारण करने वाले।