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पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र ७९२
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उपसंहार
७९२. इच्चेतेहिं महव्वतेहिं पणवीसाहि य भावणाहिं संपन्ने अणगारे अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं सम्मं काएण फासिता पालित्ता तीरित्ता किट्टिता आणाए आराहिता यावि भवति।
७९२. इन ( पूर्वोक्त ) पांच महाव्रतों और उनकी पच्चीस भावनाओं से सम्पन्न अनगार यथाश्रुत, यथाकल्प और यथामार्ग, इनका काया से सम्यक् प्रकार से स्पर्श कर, पालन कर, इन्हें पार लगाकर, इनके महत्त्व का कीर्तन करके भगवान् की आज्ञा के अनुसार इनका आराधक बन जाता है।
- ऐसा मैं कहता हूँ। _ विवेचन-पंचमहाव्रतों का सम्यक् आराधक कब और कैसे? —प्रस्तुत सूत्र में साधक भगवान् की आज्ञा के अनुसार पंच महाव्रतों का आराधक कब और कैसे बन सकता है, इसका संक्षेप में संकेत दिया है। आराधक बनने का संक्षिप्त रूप इस प्रकार है- (१) पच्चीस भावनाओं से युक्त पंच महाव्रत हों, (२) शास्त्रानुसार चले, (३) कल्प (आचार-मर्यादा) के अनुसार चले, (४) मोक्षमागानुसार चले, (५) काया से सम्यक् स्पर्श (आचरण) करे, (६) किसी भी मूल्य पर महाव्रतों का पालन-रक्षण करे, (७) स्वीकृत व्रत को पार लगाए (८) इनके महत्त्व का श्रद्धा पूर्वक कीर्तन करे।
निष्कर्ष प्रस्तुत पन्द्रहवें अध्ययन में सर्वप्रथम प्रभु की पावन जीवन गाथाएं संक्षेप में दी गई हैं। पश्चात् प्रभु महावीर द्वारा उपदिष्ट श्रमण-धर्म का स्वरूप बताने वाले पांच महाव्रत तथा उनकी पचीस भावनाओं का वर्णन है।
पांच महाव्रतों का वर्णन इसी क्रम से दशवैकालिक अध्ययन ४ में, तथा प्रश्नव्याकरण संवर द्वार में भी है। पचीस भावनाओं के क्रम तथा वर्णन में अन्य सूत्रों से इनमें कुछ अन्तर है। यह टिप्पणों में यथास्थान सूचित कर दिया गया है। वृत्तिकार शीलांकाचार्य ने भावनाओं का जो क्रम निर्दिष्ट किया है, वह वर्तमान में हस्तलिखित प्रतियों में उपलब्ध है, किन्तु लगता है आचारांग चूर्णिकार के समक्ष कुछ प्राचीन पाठ-परम्परा रही है, और वह कुछ विस्तृत भी है। चूर्णिकार सम्मत पाठ वर्तमान में आचारांग की प्रतियों में नहीं मिलता , किन्तु आवश्यक चूर्णि में उसके समान बहुलांश पाठ मिलता है, जो टिप्पण में यथा स्थान दिये हैं।
सार यही है कि श्रमण पांच महाव्रतों का सम्यक्, निर्दोष और उत्कृष्ट भावनाओं के साथ पालन करे। इसी में उसके श्रमण-धर्म की कृतकृत्यता है। "
॥ पंचदशमध्ययनं समाप्तम्॥
॥ तृतीय चूला संपूर्ण ३. जे सद्द-रूव रस-गंध-मागते, फासे य संपप्प मणुण्णपावए। गेधिं पदोसं न करेति पंडिते, से होति दंते विरते अकिंचणे ॥५॥
-आव०चू० प्रति० पृ०१४७ ४. "मनोज्ञामनोजेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पँच।"
-तत्त्वार्थ० सर्वार्थसिद्धि अ०७१ सू०८