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पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र ७८९-७९१
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आचारांगचूर्णि सम्मत पाठ के अनुसार ५ भावनाएँ—(१) निर्ग्रन्थ प्रणीतपानभोजन तथा अतिमात्रा में आहार न करे, (२) निर्ग्रन्थ विभूषावर्ती न हो, (३) निर्ग्रन्थ स्त्रियों की मनोहर और मनोरम इन्द्रियों को न निहारे, (४) निर्ग्रन्थ स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त शय्या और आसन का सेवन न करे, (५) स्त्रियों की (कामजनक) कथा न करे।
' आवश्यक चूर्णि में ५ भावनाओं का उल्लेख इस प्रकार है-(१) आहारगुप्ति, (२) विभूषावर्जन , (३) स्त्रियों की ओर न ताके, (४) स्त्रियों का संस्तव-परिचय न करे, (५) प्रबुद्धमुनि क्षुद्र (काम) कथा न करे।
तत्त्वार्थ सूत्र में भी ५ भावनाएँ इस क्रम से बताई गई हैं—(१) स्त्रियों के प्रति रागोत्पादक कथा-श्रवण का त्याग, (२) स्त्रियों के मनोहर अंगों को देखने का त्याग, (३) पूर्वभुक्त-भोगों के स्मरण का त्याग, (४) गरिष्ठ और इष्ट-रस का त्याग तथा (५) शरीर-संस्कारत्याग।
__इसी प्रकार स्थानांगसूत्र (९वें स्थान) में, समवायांगसूत्र (९वें समवाय) में तथा उत्तराध्ययनसूत्र (१६ वें अध्ययन) में ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों के वर्णन में भी इन पाँच भावनाओं का समावेश होता जाता है। - 'पणियं' आदि शब्दों का अर्थ—चूर्णिकार के अनुसार—पणियं-स्निग्ध । रुक्खमपि णातिबहुं रूखा-सूखा आहार. भी अति मात्रा में सेवन न करे। संतिभेदा—चारित्र में भेद हो जाता है। संतिविभंगा-विविध भंग-विभंग चित्तविभ्रम हो जाता है। पंचम महाव्रत और उसकी भावनाएँ
· ७८९. अहावरं पंचमं भंते! महव्वयं 'सव्वं परिग्गहं पच्चाइक्खामि। से अप्पं वा १. (क) १."इत्थी-पसु-पंडग-संसत्तसयणासणवजणया, २. इत्थीकहं विवजणया, ३. इत्थीणं इंदियाण मालोयणवजणया,४. पुव्वरयपुव्वकीलियाणं अणणुसरणया,५.पणीताहार विवजणया।"
-समवायांग सूत्र-समवाय २५ (ख) आचारांग चूर्णि मू. पा. टि. पृ. २८०-" १.णो पणीयं पाण-भोयणं अतिमायाए आहारेत्ता भवति से निग्गंथे, २.--- अविभूसाणुवाई से निग्गंथे, ३..---णो इत्थीणं इंदियाई मणोहराई मणोरमाई निज्झाइत्ता भवति से निग्गंथे, ४. ... णो इत्थी-पस-पंडगसंसत्ताई सयणाऽऽसणाई सेवेत्ता भवइ से निग्गंथे, ५. .....णो इत्थीणं कहं कहेत्ता भवति से निग्गंथे ...।" (ग) आहारगुत्ते अविभूसियप्पा, इत्थिं ण णिज्झाई, न संथवेजा। बुद्धे मुणी खुड्डकहं न कुज्जा, धम्माणुपेही संधए बंभचेरं ॥४॥
-आवश्यक चूर्णि, प्रतिक्रमणाऽऽध्ययन पृ. १४३-१४७ (घ) "स्त्रीराग-कथा-श्रवण-तन्मनोहरांगनिरीक्षण-पूर्वरतानुस्मरण-वृष्येष्टरस स्वशरीर -संस्कार त्यागाः पञ्च।
-तत्वार्थ ० सर्वार्थसिद्धि अ०७/७ २. आचा० चूर्णि मू० पा० टि० पृष्ठ २८६-पणियं णिद्धं रुक्खमपि णातिबहुं । संति विद्यते, भेदे चरित्ताओ।
विविधो भंग विभंग: चित्तविभ्रम इत्यर्थः। धम्माओ भंसः-पतनमित्यर्थः अइणिद्धण।