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________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र ७८५ . ४०९ [४] अहावरा चउत्था भावणा—निग्गंथे णं उग्गहंसि उग्गहितंसि अभिक्खणं२ उग्गहणसीलए सिया। केवली बूया-णिग्गंथे णं उग्गहंसि उग्गहितंसि अभिक्खणं २ अणोग्गहणसीले अदिण्णं गिण्हेज्जा, निग्गंथे उग्गहंसि उग्गहितंसि अभिक्खणं २ उपाहणसीलए सिय त्ति चउत्था भावणा। (५) अहावरा पंचमा भावणा—अणुवीयि मितोग्गहजाई से निग्गंथे साहम्मिएसु, णो अणणुवीयि मितोग्गहजाई। केवली बूया-अणणुवीइ मितोग्गहजाई से निग्गंथे साहमिएसु अदिण्णं ओगिण्हेजा।से अणुवीयि मितोग्गहजाई से निग्गंथे साहम्मिएसु, णो अणणुवीयि मितोग्गहजाइ त्ति पंचमा भावणा। ७८५. एत्ताव ताव (तच्चे ) महव्वते सम्म जाव आणाए आराहिए यावि भवति। तच्चं भंते! महव्वयं (अदिण्णादाणातो वेरमणं)। ७८३. भगवन् ! इसके पश्चात् अब मैं तृतीय महाव्रत स्वीकार करता हूँ, इसके सन्दर्भ में मैं सब प्रकार से अदत्तादान का प्रत्याख्यान (त्याग) करता हूँ। वह इस प्रकार—वह (ग्राह्य पदार्थ) चाहे गाँव में हो या नगर में हो, अरण्य में हो, थोड़ा हो या बहुत, सूक्ष्म हो या स्थूल (छोटा या बड़ा), सचेतन हो या अचेतन; उसे उसके स्वामी के बिना दिये न तो स्वयं ग्रहण करूँगा, न दूसरे से (बिना दिये पदार्थ )ग्रहण कराऊँगा और न ही अदत्त-ग्रहण करने वाले का अनुमोदन-समर्थन करूँगा, यावज्जीवन तीन करणों से तथा मन-वचन-काया, इन तीन योगों से यह प्रतिज्ञा करता हूँ। साथ ही मैं पूर्वकृत अदत्तादानरूप पाप का प्रतिक्रमण करता हूँ आत्मनिन्दा करता हूँ, गुरु की साक्षी से उसकी 'गर्हा' करता हूँ और अपनी आत्मा से अदत्तादान पाप का व्युत्सर्ग करता हूँ। ७८४. उस तीसरे महाव्रत की ये ५ भावनाएँ हैं- . (१) उस पांचों में से प्रथम भावना इस प्रकार है-जो साधक पहले विचार करके परिमित अवग्रह की याचना करता है, वह निर्ग्रन्थ है, किन्तु बिना विचार किये परिमित अवग्रह की याचना करने वाला नहीं। केवली भगवान् कहते हैं जो बिना विचार किये मितावग्रह कि याचना करता है, वह निर्ग्रन्थ अदत्त ग्रहण करता है। अत: तदनुरूप चिन्तन करके परिमित अवग्रह की याचना करने वाला साधु निर्ग्रन्थ कहलाता है, न कि बिना विचार किये मर्यादित अवग्रह की याचना करने वाला। इस प्रकार यह प्रथम भावना है। (२) इसके अनन्तर दूसरी भावना यह है— गुरुजनों की अनुज्ञा लेकर आहार-पानी आदि 'उग्गहणसीलए सिया' के बदले पाठान्तर है-उग्गहणसीलए जाव सिया उग्गहणसीले सिया। २. 'उग्गहणसीलए सियत्ति' के बदले पाठान्तर है- 'उग्गहणसीलए यत्ति, उग्गहणसीलए अत्ति, उग्गहणसीलए सित्ति। ३. 'एत्ताव ताव महत्तवे' के बदले पाठान्तर हैं- 'एत्ताव महव्वते, एतावया महव्वते।' ४. 'सम्मं' के बदले पाठान्तर है-'संजमं।'
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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